Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: र : आत्मधर्म : पोष : रप००
प्रभुना केवळज्ञान–दीवडामां, के साधकना श्रुतज्ञान–दीवडामां
राग नथी; बंने दीवडा वीतरागी चैतन्यतेजथी प्रकाशी रह्या छे.
निर्मोह थयेली पर्याय ज निर्मोह आत्माने जाणीने अनुभवे
छे; एटले धर्मीनी अनुभूतिमां द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणे शुद्ध
अनुभवाय छे; द्रव्य–गुण ने पर्याय एवा भेद पण तेमां नथी.
आवी अनुभूति ते साची महावीर–अंजलि छे.
* अनेकान्त–जीवन *
ज्ञानने अनेकान्तस्वरूपे अनुभवनार ज्ञानी जीव पोताना
स्वगुणना अस्तित्वथी जीवे छे. अने अज्ञानी, पोताना अस्तित्वने
परथी भिन्न नहि देखतो थको, परना ज अस्तित्वने देखीने
पोतानी नास्ति करतो थको, भावमरणथी पशु जेवो थई जाय छे.
–आ रीते अनेकान्त ते आत्मानुं जीवन छे.
* प्रभुनो सौथी मोटो उपकार *
पोताना ज्ञानस्वरूप अस्तित्वने जे नथी देखतो ते जीव
कोईने कोई प्रकारथी रागने के जडने आत्मा माने छे, एटले
तेनाथी भिन्न पोताना चेतनमय अस्तित्वनो ते लोप करे छे,
–तेनी श्रद्धा तेने रहेती नथी. एवा जीवोने स्वरूपनुं साचुं
अस्तित्व बतावीने भगवाने भावमरणथी उगार्या छे.
ज्ञानी तो चेतनस्वरूपे ज पोतानुं अस्तित्व देखे छे, एटले
रागादिने के शरीरादिने ज्ञानमां ज्ञेयपणे जाणवा छतां ते जराय
छेतरातो नथी, पोतानी चैतन्यवस्तुने ते रागथी ने जडथी जुदी ने
जुदी जीवंत राखे छे, चैतन्यवस्तुमां बीजाने जराय भेळवतो नथी.
–आवुं स्वरूप–जीवन भगवानना अनेकान्तशासनथी प्राप्त थयुं छे.
–ए ज प्रभुजीनो सौथी महान उपकार छे.