Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ३ :
रु महावीरनाथनो ईष्ट–उपदेश रु
सर्वजीव–हितकारी,
भगवान महावीरनुं अनेकान्तशासन
(अनेकान्तमां अनंत गंभीरता भरी छे)
जगतना जीव के अजीव समस्त पदार्थोमां पोतपोताना
अनेकधर्मो (अनंत धर्मो) रहेलां छे, तेना अनेकान्त स्वरूपने
वीरनाथनी वाणी प्रकाशे छे. ए रीते प्रत्येक पदार्थना स्वाधीन
अनंतस्वभावोने जाणतां, अने पोताना आत्मामां रहेला पोताना
ज्ञानादि अनंतस्वभावोने जाणतां, जीवने स्व–परनुं भेदज्ञान थाय
छे, तेने क्यांय मोह रहेतो नथी, ने ते पोताना निजस्वभावरूपे
परिणमे छे. निजस्वभावरूप परिणमन ते ज जीवनुं हित छे. ते ज
ईष्ट छे, ने एवा ईष्टनो उपदेश महावीरप्रभुना अनेकान्त–शासनमां
छे. अने ते शासन सर्वजीवोने हितकारी छे. भगवाने करेलो ईष्ट
उपदेश केवो सुंदर छे! ते वीरपुत्र गुरुकहाने आपणने समजाव्युं छे;
तेनो नमूनो अहीं आप्यो छे. वीरप्रभुना अढी हजारमा
निर्वाणोत्सवनी आ मंगल प्रसादी छे. (ब्र. ह. जैन)
द्वि–स्वभावी वस्तु (महावीर प्रभुनो ईष्ट उपदेश)
अनेकान्तमय आत्मवस्तुना प्रवचनमां गुरुदेवे कह्युं के–वस्तुमां एक सामान्य–
स्वभाव अने एक विशेषस्वभाव, एटले के एक द्रव्यस्वभाव, अने एक पर्यायस्वभाव,–
एम बे स्वभाव एकसाथे वर्ते छे. तेमां सामान्यरूप एवो द्रव्यस्वभाव ते पर्यायनुं कारण
नथी, पण विशेषरूप एवो पर्यायस्वभाव ते पर्यायनुं कारण छे. सामान्य द्रव्यस्वभाव
पोते जो पर्यायनुं कारण होय तो, ते सामान्य स्वभाव सदा एकरूप रहेनार होवाथी
पर्यायो पण सदा एकरूप ज थवी जोईए.–पण एम नथी. पर्यायो विविध थाय छे ने तेनुं
कारण आत्मानो पर्यायस्वभाव छे; ते–ते पर्यायरूपे थवानी