Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : पोष : रप००
योग्यतारूप पर्यायस्वभाव छे, ने एकरूप रहेवानी योग्यतारूप द्रव्यस्वभाव छे. आ
रीते द्रव्य अने पर्याय बंने स्वभावो आत्मामां एक साथे छे, तेने अनेकान्तस्वरूपे
जिनशासन प्रकाशे छे. आवो वस्तुस्वभाव जेनी द्रष्टिमां आव्यो ते जीव
भवचक्रमांथी बहार नीकळी गयो. –आ महावीर भगवाने आपेलो ईष्ट–उपदेश छे.
अनेकान्तस्वरूप आत्मानी प्रसिद्धि
ते ज सर्वे जिज्ञासुओने उपकारक छे.
निर्मळपर्यायथी जुदुं कोई चैतन्यतत्त्व नथी; लोक–अलोकनी जेम कांई द्रव्य
ने पर्याय जुदा नथी; बंनेना असंख्यप्रदेशो एक ज छे, कांई प्रदेशभेद नथी.
आत्माने द्रव्य अपेक्षाए ध्रुवता छे ने पर्यायअपेक्षाए आत्माने परिणमन छे, –ए
अपेक्षाए द्रव्य अने पर्याय वच्चे कथंचित् भेद होवा छतां, जेम बे आंगळी
एकबीजाथी प्रदेशभेदे जुदी छे तेम कांई द्रव्य अने पर्याय ए बे जुदा नथी. बापु!
निर्मळ पर्यायने छोडवा जईश तो ते पर्यायथी जुदी कोई (सर्वथा ध्रुव) आत्मवस्तु
तने प्राप्त नहि थाय. द्रव्य अने पर्याय बंने साथे अनुभवमां आवे छे, पण ते
अनुभूतिमां ‘आ द्रव्य, ने आ पर्याय’ एवा भेदने ते स्पर्शतो नथी; एटले
अनुभूतिमां भेदविकल्पनो निषेध (अभाव) छे, पण कांई अनुभूतिमां पर्यायनो
अभाव नथी. पर्याय तो अंतर्मुख एकाग्र थई छे, त्यारे तो आत्मा अनुभवमां
आव्यो छे. अहो, आचार्यदेवे दीवा जेवुं चोकखुं वस्तुस्वरूप खुल्लुं कर्युं छे.
हे जीव! तारी चैतन्यसत्तानी सीमा तारी पर्याय सुधी छे. तारी पर्यायथी
बहार, बीजी वस्तुमां तारी सत्ता नथी. पण तारी पर्याय कांई तारी सत्ताथी जुदी
नथी. तारा अनंतगुणनुं सत्त्व पर्यायमां निर्मळपणे उल्लसी रह्युं छे, ते तुं ज छो,
ते कांई ताराथी कोई बीजुं नथी. हा, एकली पर्याय जेटलो आखो आत्मा नथी पण
ध्रुवस्वभाव तेमज पर्यायस्वभाव एवा बंने स्वभावरूप आत्मतत्त्व अनुभवमां
आवे छे. पर्यायने एटले के चैतन्यपरिणतिने नहि स्वीकारनार जीव ध्रुवस्वभावने
पण स्वीकारी शकतो नथी. निर्मळपर्यायमां ध्रुवस्वभावनो स्वीकार, ने
ध्रुवस्वभावना स्वीकारमां निर्मळ चैतन्यपर्यायनो स्वीकार, एम अनेकांतना बळे
वस्तुना बंने स्वरूपनो स्वीकार एकसाथे ज थई जाय छे. ने एवी वस्तुने
अनुभवनारो जीव ज धर्मी छे, ते ज