अनेकान्तवादी जैन छे. आवो अनेकान्तमार्ग ते ज भगवान महावीर प्रभुनो मार्ग
छे. अहो, अनेकान्तमां तो अनंत गंभीरता भरी छे.
अनित्यनी वात अमारे सांभळवी नथी. अरे बापु! महावीर परमात्मानुं
अनेकान्तशासन द्रव्य–पर्यायरूप वस्तुस्वरूप बतावे छे; ते समजवुं अज्ञानीने कठण
पडे छे. जे वस्तु नित्य, ते ज वस्तु अनित्य! एम तेने आश्चर्य अने शंका थाय छे.
पण वस्तु पोते ज पोताने नित्य तेमज अनित्य एवा अनेकान्तस्वरूपे प्रकाशी रही
छे, ते समजनार ज्ञानी तो जाणे छे के अहो, पर्यायरूपे मारी अनित्यता छतां
द्रव्यपणे हुं नित्य टकतो छुं. मारुं नित्य ज्ञान ते अनित्यताथी व्याप्त होवा छतां, ते
मने उज्वळस्वरूपे अनुभवाय छे. अनित्यपणुं ते कांई ज्ञाननी उपाधि नथी पण
ज्ञाननुं सहजस्वरूप छे. नित्यपणुं ने अनित्यपणुं एवा बंने स्वभावधर्मो ज्ञानमां
एकसाथे उल्लसी रह्या छे. अहो, आवुं स्वरूप धर्मी पोताना अंतरमां अनुभवे छे.
ते कांई पोताने चैतन्यपरिणामथी जुदो नथी अनुभवतो, पण ध्रुव ने पर्याय एवा
बंने स्वभावोथी अभिन्न, एकाकार चैतन्यभावस्वरूप पोताने अनुभवे छे. आवा
अनुभवमां भगवान आत्मा सत्यस्वरूपे प्रसिद्ध थयो छे.
सम्यग्दर्शनने कारणे रागादि थाय–ए वात रहेती नथी. बीजी रीते कहीए तो
सम्यग्दर्शनादि भाव ते निश्चय मोक्षमार्ग, अने तेनी साथेना रागादिने पण
मोक्षमार्गमां कहेवा ते व्यवहार;–ते निश्चय–व्यवहार एकबीजाना कारणे नथी,
बंनेनो स्वकाळ एक होवा छतां, एकना कारणे बीजानुं अस्तित्व नथी.–आम
स्वतंत्र तत्त्वोने जेम छे तेम जाणवा ते वीरनाथनो अनेकान्तमार्ग छे.