: २ : आत्मधर्म : महा : २५००
एक ज्ञानमात्र ज भावमां शक्ति अनंती ऊछळे;
अहीं वर्णवे ते शक्तिने भवि जीव जाणो तेहने.
‘जीवत्व’थी जीवे सदा जीव चेततो ‘चिति’ शक्तिथी;
‘द्रशि’ शक्तिथी देखे बधुं ने जाणतो वळी ‘ज्ञान’थी.
आकुळ नहि ‘सुख’ शक्तिथी, निजने रचे निज ‘वीर्य’थी;
‘प्रभुता’ वडे शोभित ने व्यापक छे ‘विभु’ शक्तिथी.
सामान्य देखे विश्वने ते ‘सर्वदर्शि’ शक्ति छे;
जाणे विशेषे विश्वने ‘सर्वर्ज्ञता’नी शक्ति छे.
ज्यां आवी झळके विश्व एवी शक्ति छे ‘स्वच्छत्व’नी;
छे स्पष्ट–स्वानुभवमयी ते शक्ति जाण ‘प्रकाश’नी.
‘विकासमां संकोच नहि’ ते शक्ति तेरमी जाणवी;
‘नहि कार्य–कारण’ कोईनुं एवी ज शक्ति आत्मनी.
जे ज्ञेयनो ज्ञाता बने वळी ज्ञेय बनतो ज्ञानमां,
ते शक्तिने ‘परिणम्य–परिणामक’ कहे छे शास्त्रमां.
‘नथी त्याग के नथी ग्रहण’ बस! निजस्वरूपमां स्थित जीव छे;
स्वरूपे प्रतिष्ठित जीवनी शक्ति ‘अगुरुलघुत्व’ छे.
‘उत्पाद–व्यय–ध्रुव’ शक्तिथी जीव क्रम–अक्रम वृत्ति धरे,
‘परिणामशक्ति’थी सत्पणुं त्रणकाळमां ते नहि फरे.
नहीं स्पर्श जाणो जीवमां आत्मप्रदेश ‘अमूर्त’ छे;
कर्ता नथी परभावनो एवी ‘अकर्तृ’शक्ति छे.
भोक्ता नथी परभावनो एवी ‘अभोकतृ’ शक्ति छे;
‘निष्क्रियता’रूप शक्तिथी आत्मप्रदेश निस्पंद छे.