Atmadharma magazine - Ank 364
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: महा : रप०० आत्मधर्म : ३ :
असंख्य निज अवयव थकी ‘नियतप्रदेशी’ आत्म छे;
ते शरीरमां नथी व्यापतो ‘स्वधर्म–व्यापक’ शक्ति छे.
स्व–परमां जे सम, अने विसम, वळी छे मिश्र जे
त्रणविध एवा धर्मने निजशक्तिथी आत्मा धरे.
जीव नंत भावो धारतो ‘अनंतधर्म’नी शक्तिथी;
तत ने अतत्पणुं साथ वरते ‘विरुद्धधर्म’नी शक्तिथी.
जे ज्ञाननुं तद्रूप–भवन ते ‘तत्त्व’ नामनी शक्ति छे;
वळी अतद्रूप परिणमन जीवनुं ते ‘अतत्त्व’ शक्ति छे.
बहु पर्यायोमां व्यापतो पण एक द्रव्यपणे रहे;
निजस्वरूपनी ‘एकत्व’शक्ति जाणी जीव शांति लहे.
छे एक द्रव्य ज जीव ‘अनेक’ पर्ययरूप बने,
स्व–पर्यायोमां व्यापतो जीव सुखी ज्ञानी सिद्ध बने.
छे ‘भाव–शक्ति’ जीवनी सत्रूप अवस्था वर्तती;
वळी असत्रूप छे पर्ययो ‘अभाव–शक्ति’ जीवनी.
‘भावनो तो अभाव’ थाय, ‘अभावनो वळी भाव’ रे,
ए शक्ति बंने एकीसाथे ज्ञानमां तुं जाणजे.
वळी ‘भाव ते तो भाव’ ने ‘अभाव तेह अभाव’ छे,
एवा स्वभावे जीव चेतक निजगुणे देखाय छे.
नहि कारकोने अनुसरे एवो ज भवतो ‘भाव’ छे;
ने कारकोने अनुसरे तो तेनी ‘क्रियाशक्ति’ छे.
निज ‘कर्म–शक्ति’थी आतमा सिद्धरूप भाव ज पामतो;
वळी ‘कर्तृ–शक्ति’ना बळे पोते ज भावकरूप थतो.