Atmadharma magazine - Ank 364
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : महा : २५००
जे ज्ञानरूप छे शुद्धभावो तेहनुं जे भवन छे,
आत्मा स्वयं ते भावनुं उत्कृष्ट साधन थाय छे.
तुज ‘करण–शक्ति’ जाण रे! तुं बाह्यसाधन शोध मा!
आत्मा ज तारो करण छे,–पछी वात बीजी पूछ मा..
आत्मा वडे निजआत्मने जे ज्ञानभाव अपाय छे.
तेने ग्रहे छे आतमा–ए ‘संप्रदान’ स्वभाव छे.
उत्पाद–व्ययथी क्षणिकता पण ध्रुवनी हानि नहीं,
सेवो सदा सामर्थ्य एवुं ‘अपादान’नुं आत्ममां.
भाव्यरूप जे ज्ञानभावो परिणमे छे आत्ममां,
आत्मा ज तेनुं ‘अधिकरण’ भाख्युं अहो! जिनवचनमां.
छे ‘स्व अने स्वामित्व’ मारुं मात्र निजस्वभावमां,
निजभावथी को अन्यमां छे स्वत्व मारुं नहि कदा.
अनेकान्त छे जयवंत अहो! निजशक्तिने प्रकाशतो,
शक्ति अनंती माहरी मुज ज्ञानमां ज समावतो.
ज्ञानलक्षण भाव साथे अनंत भावो उल्लसे,
अनुभव करुं एनो अहो! विभाव कोई नहीं दीसे.
जिनमार्ग आ पाम्यो अहो, श्री गुरु–वचन प्रसादथी,
अंदर नीहाळ्‌युं रूप चेतन, पार जे परभावथी.
निज शक्तिने पाम्यो अहो श्री समयसार–प्रसादथी,
निजशक्तिनो वैभव अहो! आ पार छे परभावथी.