अनंत गंभीरता भरी में देखिया परमातमा.
आनंदमय आह्लाद ऊछळे फरी फरीने ध्यावतां.
जयवंत छे मुज गुरु–वहाला निज निधान बताविया.
गुरुदेवना हैयामां श्रुत–सागर हीलोळे चडे छे, ने
ज्ञानसमुद्रने वलोवीने तेमांथी अध्यात्मरसनुं अमृत काढे
छे. ते अमृतनो अपूर्व स्वाद चाखतां जे आनंद थाय छे
–तेनी शी वात! ते आनंदउर्मि आ ‘आत्म–स्तवन’ द्वारा
व्यक्त थई छे. पू. गुरुदेवे आ वांचीने प्रसन्नता व्यक्त
करी छे ने तेओश्रीना आशीर्वादथी ते अहीं छपाय छे.
गुरुप्रसादीरूप आ आत्मस्तवन भव्यजीवोने अद्भुत
आत्मवैभवनी प्राप्तिनुं कारण हो.