Atmadharma magazine - Ank 364
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: महा : रप०० आत्मधर्म : ५ :
ज्ञानमात्र ज एक ज्ञायक.....पिंडलो हुं आतमा,
अनंत गंभीरता भरी में देखिया परमातमा.
आश्चर्य अद्भुत थाय छे निज विभवने नीहाळतां,
आनंदमय आह्लाद ऊछळे फरी फरीने ध्यावतां.
अद्भुत अहो! अद्भुत अहो! छे विजयवंत स्वभाव आ,
जयवंत छे मुज गुरु–वहाला निज निधान बताविया.
समयसारमां अमृतचंद्रसूरिए वर्णवेली चैतन्यनी ४७
शक्तिओ ज्यारे–ज्यारे प्रवचनमां वंचाय छे त्यारे–त्यारे
गुरुदेवना हैयामां श्रुत–सागर हीलोळे चडे छे, ने
ज्ञानसमुद्रने वलोवीने तेमांथी अध्यात्मरसनुं अमृत काढे
छे. ते अमृतनो अपूर्व स्वाद चाखतां जे आनंद थाय छे
–तेनी शी वात! ते आनंदउर्मि आ ‘आत्म–स्तवन’ द्वारा
व्यक्त थई छे. पू. गुरुदेवे आ वांचीने प्रसन्नता व्यक्त
करी छे ने तेओश्रीना आशीर्वादथी ते अहीं छपाय छे.
गुरुप्रसादीरूप आ आत्मस्तवन भव्यजीवोने अद्भुत
आत्मवैभवनी प्राप्तिनुं कारण हो.
(–ब्र. ह. जैन)