: र : आत्मधर्म : वैशाख : २५००
४. हे गुरुदेव! दुःखमय एवा पंचमकाळने पण, शुद्धात्मतत्त्वना उपदेश वडे आपे
तो अमारा माटे आत्म–आराधनानो आनंदमय उत्तमकाळ बनावी दीधो छे.–
आपना आत्मानो आ एक आश्चर्यकारी चमत्कार छे.
प. आनंदनो नाथ आत्मा जागे, ने भवदुःखनो अंत आवे एवी आ वात छे.
भाई, तारो आत्मा सर्वथा अंतर्मुख छे; अंतरमां ऊंडे–ऊंडे ऊतरतां राग–द्वेष
वगरनुं चैतन्यतत्त्व सुखसहित प्रकाशी रह्युं छे; तेनुं वेदन थतां संसारना कोई
सुखनी वांछा रहेती नथी. आवुं तत्त्व धर्मात्माने गोचर छे, तेनी हे जीव! तुं
रुचि कर.
६. अहा, गुरुदेवना प्रतापे अत्यारे आ पंचमकाळमांय आपणने वारंवार जिनेन्द्र
भगवानना पंचकल्याणक जोवा मळे छे. अत्यारे तो आपणे स्थापना–निक्षेपरूप
पंचकल्याणक जोईए छीए, ने थोडा वखत पछी, विशेष आराधकभाव सहित