Atmadharma magazine - Ank 367
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २५०० आत्मधर्म : १ :
८५ चैतन्य–रत्नोनी
मंगलमाळा
रागथी भिन्न चैतन्यभावने प्रसिद्ध करीने
भारतभरमां भेदज्ञाननी भेरी वगाडनारा गुरुदेवनी ८५ मी
जन्मजयंतीनो मंगल उत्सव मुंबईनगरीमां मुमुक्षुओए
आनंदथी उजव्यो. आ आनंदमां साथ पूराववा, मुंबई
राजकोट भावनगर अने सोनगढना प्रवचन वगेरेमांथी
चूंटेला ८५ पुष्पोनी मंगलमाळ अहीं आपीए छीए, ते
मुमुक्षु–हृदयमां आनंदनी सौरभ प्रसरावशे. (सं.)
जगतमां सौथी सुंदर एवुं चैतन्यतत्त्व स्वद्रव्य छे, ते स्वद्रव्य आनंदरूप छे;
तेनो आश्रय करनार जीव मंगळरूप छे. आवा मंगलकारी मंगल–आत्मा
गुरुदेव जयवंत वर्तो.
१. आनंदमय चैतन्यतत्त्वना आश्रये जे कार्य थाय, ते कार्य शुभ रागना आश्रये
थई शके नहि, के परद्रव्यना आश्रये पण थई शके नहि. माटे स्वतत्त्वने
जाणीने तेनो आश्रय करो.
र. मोक्षने साधवानुं महानकार्य शुद्ध स्वद्रव्यना आश्रये ज थाय छे; ते कार्य बीजा
कोईना आश्रये थई शकतुं नथी; माटे स्वद्रव्य ज सौथी उत्तम अने ईष्ट छे.
३. आत्माने अकषायी शांति ईष्ट छे अकषाय–शांतिना वेदन पासे तो
प्रशस्तरागनो कषायकण पण अशांतिरूप–कलेशरूप–आगरूप भासे छे.
तीव्रकषायना वेदनवाळा जीवने मंदकषाय आग जेवो न लागे, पण कषाय
वगरनी शांतिनुं जेने वेदन छे तेने तो मंदकषाय पण आग जेवो लागे छे.
‘शांति’ अने ‘राग’ ए बंनेना वेदनमां, ‘ठरवुं’ अने ‘बळवुं’ जेटलुं
अंतर छे...एकमां आत्मा ठरे छे, बीजामां आत्मा बळे छे.