Atmadharma magazine - Ank 367
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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महावीर–निर्वाणनुं अढीहजारमुं मंगलवर्ष
[३६७]
श्रीगुरुना उपदेशथी
तत्काळ अनुभव थाय छे
अहो, तीर्थंकरना उपदेशअनुसार ज्ञानीए भेदज्ञान समजाव्युं,
ते सांभळतां तरत ज ज्ञानशक्ति स्वरूपना प्रत्यक्षअनुभवशीलपणे
कोने न परिणमे? आत्मा सम्यग्ज्ञानरूप जरूर परिणमे; स्वरूपनो
अनुभव जरूर थाय, एटले सम्यक्त्व थाय ज.
धर्मीनुं अस्तित्व कांई वचनमां नथी, रागमांय धर्मीनुं
अस्तित्व नथी; धर्मीनुं अस्तित्व तो ज्ञानचेतनामां छे. ते
ज्ञानचेतनामांथी नीकळेला भावोने जे ओळखे तेने तत्काळ भेदज्ञान
थाय ज...तेना भाव पण रागथी जुदा चेतनमय थई जाय.
वाह रे वाह! धन्य गुरु! आपे आवुं स्पष्ट भेदज्ञान करावीने
तत्त्व समजाव्युं ते समजतां तत्काळ अमारा अंतरमां शांतरसना
वेदन सहित अपूर्व ज्ञान ऊपजे छे. पहेलांं आत्मा जाणे मरेलो हतो,
देह वगरनुं तेनुं अस्तित्व भासतुं ज न हतुं, हवे देहथी भिन्न
चेतनस्वरूपे पोताना अस्तित्वने अनुभवीने आत्मा जीवतो थयो,
आत्मामां सम्यग्ज्ञाननो अवतार थयो. हे गुरु! आपे मरेलामांथी
अमने जीवता कर्या.
तंत्री : पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार संपादक : ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २५०० वैशाख (लवाजम : चार रूपिया) वर्ष ३१ : अंक नं. ७