Atmadharma magazine - Ank 367
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : वैशाख : २५००
साचुं जीवन जीववानी रीत
उपयोग जीवनुं जीवन छे
(पू. श्री कानजीस्वामीना प्रवचनोमांथी)
* * * *
आत्मानो स्वभाव सदा शुद्ध चेतनालक्षणरूप छे; ते चेतनाने ज शुद्धधर्म
भगवाने कह्यो छे. तेमां रागरूप भावकर्म नथी, तेम ज जडकर्म पण नथी. आ रीते
कर्मथी विमुक्त चेतनास्वरूपे आत्माने चेतवो–अनुभववो ते ज शुद्ध धर्म छे.
शुद्ध द्रव्यार्थिकनयथी जोतां बधा आत्मा सदा शुद्ध चेतनालक्षणसंपन्न छे. आवा
आत्माना अनुभवरूप चेतनाधर्म ते मोक्षमार्ग छे.
रागादि विकल्पमां चेतना नथी, ने चेतनामां रागादि नथी. रागादि ते कांई
आत्मानुं स्वलक्षण नथी. राग वगरनो आत्मअनुभव संभवे छे पण चेतना वगरनो
आत्मअनुभव असंभव छे.
–आ रीते स्पष्ट भेदज्ञान करीने, रागथी जुदी परिणमती जे ज्ञानचेतना तेना
वडे आत्मा लक्षमां आवे छे, ने ते चेतना ज आत्मानुं लक्षण छे. आवा स्वधर्मरूप
लक्षण वडे आत्मा लक्षित थाय छे–एम जिनशासनमां सर्वज्ञदेवे कह्युं छे.
सर्वज्ञ–ज्ञानविषे सदा उपयोगलक्षण जीव छे;
ते केम पुद्गल थई शके के ‘मारुं आ’ तुं कहे अरे!
(समयसार गा. २४)
उपयोगलक्षण वडे अंदरमां शरीरथी विलक्षण तारा आत्माने शोध,
चैतन्यभावमां केलि करतुं तारुं सत्त्व देखीने तने महा आनंद थशे.
चेतना ते आत्मानो असली स्वभावभूत धर्म छे. रत्नत्रयधर्मनुं लक्षण पण