: ३६ : आत्मधर्म : वैशाख : २५००
उपादेय छे; अने एवो अनुभव ते ज आत्मा छे. आवा शुद्धस्वरूपनो अनुभव
ते ज सुख छे; ते ज उत्कृष्ट छे; बीजुं बधुं हेय छे.
८१. अनुभवस्वरूप आत्मा अतीन्द्रियज्ञानरूप थयो छे, ने ते असंख्यप्रदेशमां सर्व
प्रदेशे एकसरखो परिणमी रह्यो छे. ज्ञानपरिणमन आत्माना सर्व प्रदेशमां छे.
अनुभूतिमां आत्मानो कोई प्रदेश ज्ञानपरिणमनथी खाली नथी, अनुभूति सर्व
आत्मप्रदेशमां व्यापक छे. आत्माना सर्व प्रदेशो सदा चेतनारसथी भरेला छे, ते
ज प्रदेशोमां आनंद भर्यो छे; अनंतगुणनो रस सर्व आत्मप्रदेशे भरेलो छे.
आत्मा ज ते स्वरूप छे.
८२. आवो ज्ञानघन आत्मा ज मुमुक्षुओए साध्य–साधकभावरूपे उपासवा योग्य छे.
ज्ञानस्वरूपथी जुदुं बीजुं कोई उपासवा योग्य नथी.–आ मोक्ष माटेनो महान
जैनसिद्धांत छे.
८३. आवा आत्मानो अनुभव केम थाय? के स्वानुभव–प्रत्यक्ष वडे अनुभव थाय
छे. एकला परोक्षज्ञानवडे के रागवडे आत्मानो अनुभव थतो नथी.
८४. आत्माना अनुभवनो आटलो बधो महिमा केम करो छो? केमके आवा
अनुभव वडे ज साध्य आत्मानी सिद्धि थाय छे, बीजी कोई रीते आत्मा
सधातो नथी एटले के जीवनुं दुःख मटतुं नथी ने सुख थतुं नथी. सुखनी प्राप्ति
ने दुःखनो नाश आवा आत्माना अनुभवथी ज थाय छे, माटे तेनो महिमा
अपार छे; ते अनुभवथी ऊंचुं बीजुं कांई नथी.
८५. आवा अनुभव–दातार ने चोराशीना चक्करथी छोडावनार गुरुदेवने नमस्कार
हो.
–ब्र. ह. जैन
उपकारनी शी वात!
गुरुउपदेशने अंतरमां उतारीने ज्यां अपूर्व स्वसंवेदनपूर्वक आत्मज्ञान
थाय छे त्यां धर्मीने एम थाय छे के अहा! मारो आखो आत्मा ज नवो बनी
गयो! एवो सरस बनी गयो के जेना एकत्वमां अनंतकाळ रहेतां पण कंटाळो न
आवे. कदी कल्पनामांय न हतो एवो अपूर्व शांतरसथी भरपूर आत्मा पोते
जीवंत थईने प्रसिद्ध थयो.–आवा शांतरसरूप थयेलो आत्मा तो जगतमां सदाय
सुखी ज होयने! आवुं सुख जेमना प्रतापे मळ्युं–ते संतोना उपकारनी शी वात!