अशुभकर्मनो उदय आवे, चारेकोर प्रतिकूळताथी घेराई गया
होय,–मनमां मुंझवण थती होय एवा वखते शुं करवुं? एम घणा पूछे
छे. तेने ज्ञानी समजावे छे के हे साधर्मी भाई! हे बहादुर मुमुक्षु! एवा
वखते पण धैर्य धारण करीने आराधनामां अडग रहेजे. पुण्यना उदय
वखते जे करवानुं छे,–पापना उदय वखते पण ते ज करवानुं छे.
धर्मीजीव पुण्योदय वखते पण तेनाथी भिन्न आत्मतत्त्वनी भावना अने
आराधनामां वर्ते छे, तेम पापना उदय वखते पण तेनाथी भिन्न
आत्मतत्त्वनी भावना अने आराधनामां ज वर्ते छे. एवुं नथी के
पुण्यना उदय वखते कंईक जुदुं करवानुं ने पापना उदय वखते तेनाथी
कंईक बीजुं करवानुं होय! धर्मी जीव तो ते छे के–
पुण्य–पाप जे सम गणे, अळगो रही पाप–पुण्यथी,
ल्ये चेतननो स्वाद; राग–द्वेषथी पार;
करे ज्ञान–अनुभव अहो, चेते ज्ञाननी चेतना,
चाखे सिद्धनो प्रसाद. चले जाय भवपार.