: जेठ : रप०० आत्मधर्म : १ :
वार्षिक लवाजम वीर सं. रप००
चार रूपिया जेठ
वर्ष ३१ ई. स. 1974
अंक ८ June
(धर्मीजीव तेमां शोभे छे)
* जीवनुं स्वरूप चैतन्यमय छे–ते वीतराग छे.
* वीतराग–सर्वज्ञ थयेल आत्मा ते जैनशासनमां देव छे. तेमनी वाणी
ते आगम छे.
* ते जिनवाणीरूप आगममां पण वीतरागी तात्पर्य ज कह्युं छे.
–एटले–
* जेणे रागथी भिन्न वीतरागस्वरूप चैतन्यतत्त्वनो अनुभव कर्यो तेणे
ज जिनवाणीने जाणी छे. एकला रागने ज अनुभवे तेणे
जिनवाणीने जाणी नथी.
* चैतन्यतत्त्वनी अनुभूति रागथी पार छे, तेमां समस्त जिनशासन
समाय छे. जेमां रागना कोई अंशनुं पोषण थाय–ते उपदेश
जिनशासननो छे ज नहि.
* वीतराग...वीतराग...वीतराग! देव पण वीतराग; तेमनी वाणी पण
वीतरागतानी ज पोषक....गुरु पण वीतरागताने साधनारा ने
वारंवार तेनो उपदेश देनारा.....आवा देव–शास्त्र–गुरु त्रणेय
आत्माना वीतरागस्वरूपना अनुभवनो उपदेश देनारां छे. आवो
अनुभव करनारा धर्मीजीवो जिनशासनमां शोभे छे. ने एवा जीवोथी
जिनशासन सदा जयवंतु वर्ते छे.