Atmadharma magazine - Ank 369
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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हे माता! में मारा शुद्धचैतन्यस्वरूपनी अनुभूति करी छे, ते
स्वरूपने वधारे साधवा, हुं मारा चैतन्यधाममां जईने ठरवा मांगुं
छुं, ते माटे हे माता! हुं हवे आ मोह छोडीने शुद्धोपयोगी
चारित्रदशा अंगीकार करवा जाउं छुं...तुं मने आनंदथी रजा आप.
ज्ञानी–पुत्र पोतानी माता पासे आ रीते वैराग्यपूर्वक रजा मांगता
होय–ते प्रसंगे केवो हशे! अहा, धन्य अवसर! पोतानुं जेने हित
करवुं होय तेने आ ज मार्गे जवानुं छे. अहो, मोक्षनो आवो
प्रसिद्ध वीतरागमार्ग, ते संतोए आ पंचमकाळमांय प्रसिद्ध कर्यो
छे. आचार्यदेव प्रवचनसारमां कहे छे के–शुद्धोपयोगरूप वीतराग–
चारित्रवडे मारा आत्माने में भवदुःखथी छोडाव्यो छे, तेम बीजा
जे आत्माओ पण आ भवदुःखथी छूटवा मांगता होय, ने
चैतन्यनी परम वीतरागी शांतिने चाहता होय तेओ पण आवुं
चारित्र अंगीकार करो....ते मार्ग अमे जोयेलो–अनुभवेलो छे, ते
मार्गना प्रणेता अमे आ रह्या! अहा! आचार्यदेव जाणे सामे ज
विद्यमान होय! ने धर्मात्माजीवोने चारित्र देता होय! एवा
अलौकिक भावथी चारित्रनुं वर्णन कर्युं छे.
वाह रे वाह! ए चारित्रदशा! धन्य दशा! ए धर्मात्माजीवोनो
मनोरथ छे. चालो जईए...चारित्रना पंथे...मोक्षना मारगे.
तंत्री : पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार * संपादक : ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २५०० अषाढ (लवाजम : चार रूपिया) वर्ष ३१ : अंक ९