: २४ : आत्मधर्म : अषाढ : २५००
• अहो, आ सम्यग्दर्शन छे ते मोक्षफळ देनारुं साचुं कल्पवृक्ष छे; जिनवर–वचननी
श्रद्धा तेनुं मूळ छे, तत्त्वश्रद्धा तेनुं मजबुत थड छे, समस्त गुणनी
उज्जवळतारूप जळसींचनवडे ते वर्द्धमान छे, चारित्र तेनी शाखाओ छे; सर्वे
समिति ते तेनां पत्र–पुष्प छे; अने मोक्षसुखरूपी फळवडे ते लची रह्युं छे,–आ
रीते सम्यग्दर्शन ते सर्वोत्तम कल्पवृक्ष छे. अहो जीवो! तेनुं सेवन करो.
(ए कल्पवृक्षनी मधुरी छाया लेनार पण महा भाग्यवान छे.)
• ते उत्तम पुरुषो धन्य छे, कृतकृत्य छे, त्रणलोकमां पूज्य छे, तेओ ज सार–
असारनो विचार करवामां चतुर छे, पापशत्रुनो तेओ विध्वंस करनार छे, अने
तेओ सर्व सुखने भोगवीने मुक्तिमहेलमां पधारे छे,–के जेओ सारभूत सर्व
गुणोनुं घर अने अजोड एवा सम्यग्दर्शनने धारण करे छे.
हे भव्य जीवो! तमे पण आवा सम्यक्त्वने आजे ज धारण करो.
[ईति सम्यक्त्व–महिमा]
* भवसमुद्रने तरवानुं जहाज *
सम्यक्त्व ते तो भवसागरने तरवानुं जहाज छे, शुभराग ते कांई
भवसागरने तरवानुं जहाज नथी; परंतु ते तो ऊल्टो बोजो छे.
ते बोजाने काढी नांखीने भवसागरने तराशे;
ते बोजाने राखीने भवथी नहि तराय. माटे–
तेथी न करवो राग जरीये क््यांय पण मोक्षेच्छुए;
वीतराग थईने ए रीते ते भव्य भवसागर तरे.