सन्मानुं छुं...प्रणमुं छुं...आराधुं छुं.
भरतक्षेत्रना नाना क्षेत्रमां तीर्थंकरनी उत्पत्ति नथी देखाती, पण मनुष्यक्षेत्र तो घणुं
मोटुं छे, आ मनुष्यक्षेत्रना ज विदेहक्षेत्रमां अत्यारे पण सर्वज्ञता सहित अरिहंत
भगवंतो साक्षात् विचरी रह्या छे, तेओ अमारा ज्ञानमां विद्यमान वर्ती रह्या छे, तेथी
अमारा ज्ञानमां तेमने प्रत्यक्षगोचर करीने तेमने नमस्कार करुं छुं. जेम सिद्धभगवंतो
नथी, साधकना ज्ञानमां सिद्धभगवंतो विद्यमान ज वर्ते छे एटले तेने सिद्धनो सद्भाव
ज छे; तेम अतीन्द्रिय ज्ञान–आनंदरूप थयेला अरिहंत भगवंतो पण साधकना ज्ञानमां
विद्यमान ज वर्ते छे; क्षेत्रनुं अंतर ज्ञानमां नडतुं नथी. वाह, जुओ तो खरा! रागथी
जुदा पडेला साधकना अतीन्द्रिय ज्ञाननी ताकात केटली महान छे!
चिंतवीने, भाव्यरूप शुद्धात्मा प्रत्ये ज्यां अतिगाढ भावना जागे छे त्यां भावक पोते
तेवी शुद्धात्मदशारूप थई जाय छे, जेवा ‘भाव्य’ शुद्ध छे तेवी शुद्धतारूपे (सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्ररूपे) भावक पोते थई जाय छे, एटले त्यां भाव्य ने भावकनुं द्वैत रहेतुं
पंच परमेष्ठीनो आश्रम एटले शुद्धात्मानो आश्रम,–तेमां प्रवेशतां सम्यग्दर्शन ने
सम्यग्ज्ञान जरूर थाय छे. जेम कोई ‘आश्रम’ मां जतां जीवो शांति पामे छे, तेम
पंचपरमेष्ठीनो वीतरागी–आश्रम, आत्मानो सहज शुद्ध दर्शनज्ञानस्वभाव बतावीने
जीवने सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञाननो संपादक छे. ज्ञानस्वभावी आत्माना श्रद्धा–ज्ञान वडे
ज पंच परमेष्ठीना आश्रममां जवाय छे. शुद्ध आत्माना सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान
वगर पंचपरमेष्ठीनी पण साची ओळखाण थती नथी. जे ज्ञानस्वरूप शुद्धात्माने
स्वसंवेदनप्रत्यक्ष करे ते ज साचुं