: र८ : आत्मधर्म : श्रावण–भाद्र : रप००
वृद्धि ज थाय छे. आपनुं मंगल शासन आजे पण वर्ती रह्युं छे. धर्मनी वृद्धि करनार
एवा आप ‘वर्द्धमान’ छो.
जुओ तो खरा, ‘वर्द्धमान ’ नाम पण केवुं सुंदर छे! अहो, वर्द्धमान देव!
अत्यारे अहीं आपनुं धर्मशासन प्रवर्ती रह्युं छे; एटले आपे उपदेशेला शुद्ध ज्ञान–
दर्शनना भावो अत्यारे अमारा आत्मामां वर्ती रह्या छे, ते ज आपनुं शासन छे.
जे अतीत तीर्थंकरो थया तेओ अत्यारे सिद्धपणे बिराजे छे. अनंत
सिद्धभगवंतो छे तेओ बधाय, शरीरादिथी रहित होवा छतां, चैतन्यनी विशुद्ध सत्तापणे
सद्भाववाळा छे. द्रव्यथी–गुणथी–पर्यायथी सर्वप्रकारे विशुद्ध जेमनो सद्भाव छे,
चैतन्यनी अत्यंत शुद्ध सत्तारूपे जेमनुं जीवन छे, एवा सिद्धभगवंतोने ज्ञानमां लईने
हुं प्रणमुं छुं.
अहा, कुंदकुंदाचार्यदेव महात्मा पण जेमने प्रणाम करे ते पंच परमेष्ठीपदना
महिमानी शी वात! वंदन करनारा आवडा मोटा, तो जेमने वंदन करे छे तेमनी
शुद्धतानी शी वात!
अरिहंतो–तीर्थंकरो अने सिद्धभगवंतोनी साथे, आचार्य–उपाध्याय–साधु
भगवंतोने पण हुं प्रणमुं छुं.–केवा छे ते श्रमण भगवंतो?–जेमणे परम
शुद्धोपयोगभूमिकाने प्राप्त करी छे. उपयोगभूमिका तेमां पुण्य–पाप न आवे, राग न
आवे. शुद्धउपयोगपरिणतिवडे ज सम्यग्दर्शन थाय छे ने धर्म शरू थाय छे. ते
उपयोगनी शुद्धता जेमने घणी वधी गई छे–एवा श्रमणभगवंतोने हुं प्रणमुं छुं. जुओ,
मुनिनी ओळखाण शुद्ध उपयोग वडे आपी. अरे, आवी मुनिदशानी ओळखाण पण
अत्यारे तो केवी दुर्लभ थई गई छे!
पोताना ज्ञानमां ‘सर्वज्ञ–वीतराग–अर्हंत परमात्मा आवा छे ’ एम ज्यां
तेमनुं स्वरूप नक्की कर्युं त्यां, पूर्वे थयेला बधाय अर्हंत भगवंतो पण आवा ज हता...
एम बधाय भगवंतो पोताना ज्ञानमां वर्तमानकाळगोचर थई जाय छे.
अहा, जाणे बधाय पंच परमेष्ठीभगवंतो भेगा थईने एक साथे मारा घरे–मारा
ज्ञानमंदिरमां पधार्या होय! एम साधकना आत्मामां आनंदनो महोत्सव मंडायो छे.
अहा, मारा आत्मामां मोक्षनो अपूर्व मंगलमहोत्सव, तेमां में पंचपरमेष्ठीभगवंतोने
बोलाव्या छे, ने पंचपरमेष्ठीभगवंतो मारा मंडपमां पधार्या छे; अनंता सिद्धभगवंतो,
लाखो अरिहंत भगवंतो, करोडो मुनिभगवंतो–ए सौ एक साथे मारा निर्ग्रंथ–