: श्रावण–भाद्र : रप०० आत्मधर्म : र७ :
सूत्र १ – र – ३ – ४ – प
आ पांच मंगळ गाथा द्वारा, पंच परमेष्ठीभगवंतोने आत्मामां बोलावीने,
आराधकभावनी झणझणाटी बोलावतुं अपूर्व मंगलाचरण कर्युं छे.
अहा, कुंदकुंदाचार्य जेवा महा संत जेमने नमस्कार करे छे ए साधु केवा? ए
परमेष्ठीभगवंतो केवा? एमना महिमानी शी वात! पांच गाथामां पांच परमेष्ठी
भगवंतोने ज्ञानमां हाजर करीने चैतन्यरत्नो वरसाव्या छे...आत्मामां शुद्धोपयोगनी
धारा उल्लसावी छे.
नमस्कार करतां, हुं नमस्कार करनार केवो छुं?–के हुं ज्ञानदर्शनस्वरूप
स्वसंवेदनप्रत्यक्ष छुं. मारा आत्माना स्वसंवेदनप्रत्यक्षपूर्वक हुं पंचपरमेष्ठी भगवंतोना
शुद्धात्माने नमस्कार करुं छुं. तेमना आश्रममां प्रथम तो विशुद्ध सम्यग्दर्शन ने
सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर्युं छे, चारित्र दशा पण प्रगटी छे, ने हवे चारित्रदशामां हुं
शुद्धोपयोगरूप साम्यदशाने प्राप्त करुं छुं.–जुओ तो खरा, आचार्यदेवनी वीतरागी
भावना! शुद्धोपयोगपूर्वक चारित्रदशा प्रगटी तो छे, ने शुद्धोपयोगमां एकदम ठरवा
मांगे छे...के जेनाथी साक्षात् निर्वाणनी प्राप्ति थाय छे.
पोताना ज्ञानदर्शनस्वरूप आत्माने स्वसंवेदनप्रत्यक्ष करीने ज पंचपरमेष्ठी
भगवंतोने साचा नमस्कार थाय छे.
ज्ञानस्वरूप आत्मा जेणे स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष कर्यो तेने रागादिभावोने
चैतन्यथी भिन्न जाण्या. स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष थाय एवो आत्मस्वभाव छे. रागमां के
ईंद्रियज्ञानमां आवे एवो ते स्वभाव नथी. आ रीते अतीन्द्रिय स्वभावरूप थईने,
तेना अनुभवपूर्वक भगवंत पंचपरमेष्ठीने नमस्कार कर्या छे, तेमां घणी गंभीरता छे.
पंचपरमेष्ठीने नमस्कार करतां पोताना स्वसंवेदननी वात तेमां भेगी लीधी छे.
पहेला ज सूत्रमां एस शब्दथी शरूआत करी छे, ऐष एटले ‘स्वसंवेदनप्रत्यक्ष
दर्शनज्ञानसामान्यात्माहं’–एम कहीने आत्माना स्वसंवेदनप्रत्यक्षपूर्वक
आचार्यभगवंतोए आ परमागमनो प्रारंभ कर्यो छे. नमस्कार करनारे पोते पोताने
ओळखीने पंचपरमेष्ठी भगवंतोने नमस्कार कर्या छे, एटले पोते तेमनी पंक्तिमां
भळीने तेमने नमस्कार करे छे.
पंचपरमेष्ठीमां सौथी पहेलांं वर्तमान तीर्थना नायक एवा भगवान
वर्द्धमानदेवने नमस्कार कर्या छे. अहो भगवान! आपनुं शासन एवुं छे के जेनाथी धर्मनी