Atmadharma magazine - Ank 371
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : द्वि. भाद्र : २५००
जळवडे ज शांत थाय छे. जे अधमपुरुष कामज्वररूपी रोगने परस्त्रीरूपी औषधवडे
मटाडवा चाहे छे ते तो अग्निमां तेल नाखवा जेवी मुर्खता करे छे. अरे, हळाहळ झेर
खाई लेवुं सारूं, अग्निमां बळी जवुं सारूं, समुद्रमां डुबी जवुं सारूं तथा पर्वत उपरथी
पडवुं सारूं, परंतु मनुष्यने शील वगरनुं जीवन सारूं नथी. माटे हे भव्य! हृदयमां
वैराग्य धारण करीने, शीलव्रतवडे तुं तारा आत्माने सुशोभित कर, ने परस्त्रीनो
सर्वथा त्याग कर.
धर्मनुं आचरण करनार प्राणी हीनजातिनो होय तोपण शोभे छे ने स्वर्गने
पामे छे; परंतु पापनुं आचरण करनार, धर्महीन प्राणी शोभतो नथी ने दुर्गतिमां जाय
छे. शील वगरनो विषयासक्त प्राणी जीवतो होय तोपण मरेला जेवो छे, केमके जेम
मडदामां कोई गुण होतां नथी तेम शीलरहित जीवमां कोई गुण होतां नथी.
जे मूर्खप्राणी स्वस्त्रीने छोडीने परस्त्रीनुं सेवन करे छे ते पोतानी थाळीनुं उत्तम
भोजन छोडीने चंडालना घरनी एठ खावा जाय छे. आम समजीने हे मित्र! तुं
स्वस्त्रीमां संतोष कर ने पछी सदाने माटे स्त्रीमात्रनो त्याग कर. जे विद्वान एकाग्रचित्ते
शीलधर्मनुं पालन करे छे तेना उपर मुक्तिस्त्री प्रसन्न थाय छे. एक दिवसनुं पण
ब्रह्मचर्यपालन करनार जीव नवलाख जीवोनी हिंसाथी बचे छे. तेमज स्त्रीओमां पण
जे स्त्री शीलरूप आभूषणने धारण करे छे ते जगतमां शोभे छे, ते प्रसंशनीय छे. जेनो
उत्तम शीलभंडार ईन्द्रियरूपी चोरो वडे लुंटाई गयो नथी ते शीलवान प्राणी धन्य छे.
अनेक उपद्रव थवा छतां जे पोताना शीलधर्मने छोडता नथी ते धर्मात्मा प्रशंसनीय छे.
अधिक शुं कहेवुं? माटे हे मित्र! तुं शीलधर्मनुं सर्व प्रकारे पालन कर.
* शीलव्रतना प्रभावमां प्रसिद्ध नीलीबाईनी कथा *
जिनदत्तशेठनी पुत्री नीली; ते शेठ जैनधर्मी हता, ने जैनधर्मी सिवाय बीजाने
पुत्री परणावता नहीं. ते ज गाममां समुद्रदत्तनो पुत्र सागरदत्त, ते एकवार नीलीनुं
रूप देखीने मोहित थयो, ने तेनी साथे परणवा ईच्छा करी; पण तेओ जैनमतना द्वेषी,
विधर्मी होवाथी जिनदत्तशेठ तेनी साथे नीलीना लग्न करे तेम न हतुं. आथी ते
सागरदत्ते कपटपूर्वक जैनधर्म स्वीकारवानो दंभ कर्यो ने श्रावक जेवा आचरण करवा
लाग्या. आथी, ‘सागरदत्ते मिथ्यात्वमार्ग छोडी दीधो ने जैनधर्म धारण कर्यो’ एम
समजीने जिनदत्ते नीलीने तेनी साथे परणावी दीधी.