ए सर्वे मुमुक्षुओनो मनोरथ छे; ते रत्नत्रय लेवा माटे चक्रवर्तीओ छ खंडना
साम्राज्यने तथा १४ रत्नोने पण अत्यंत सहेलाईथी छोडी दे छे; ईन्द्रो पण एने माटे
तलसी रह्या छे. जीवने आ रत्नत्रयनी प्राप्ति ते जैनशासननो सार छे. ते ज जैनधर्म छे.
वाह, आवा सम्यक्रत्नत्रयना एकाद रत्ननी प्राप्तिथी पण जीवनो बेडो पार छे.
विस्तारथी, अने तेनी ज प्राप्तिना उपायना वर्णनथी जिनागम भर्या छे. आ रत्नत्रय
एटले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ए त्रणेय राग वगरनां छे;
सिद्धांतसूत्रोमां तो तेमने ‘ज्ञाननुं परिणमन’ कहीने राग वगरनां बताव्यां ज छे, ने
रत्नत्रय–पूजनना पुस्तकमां पण पहेली ज लीटीमां तेमने त्रणेयने राग वगरनां
बतावीने पछी ज तेना पूजननी शरूआत करी छे :–
‘सरधो जानो भावा भाई, तीनोमें ही रागा नाई।’
कुंदकुंदस्वामी कहे छे के हे भव्य! दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षपंथमां आत्माने जोड.
जिनभगवंतो दर्शन–ज्ञान–चारित्रने मोक्षमार्ग कहे छे. दर्शन–ज्ञान–चारित्र ज मोक्षमार्ग
छे, केमके तेओ आत्माश्रित होवाथी स्वद्रव्य छे. जे जीव पोताना चारित्रदर्शनज्ञानमां
स्थित छे ते स्वसमय छे–एम हे भव्य! तुं जाण...ने ए जाणीने तुं पण स्वसमय था. आ
जगतनी बधी दुर्लभ वस्तुओमां रत्नत्रय सौथी दुर्लभ छे. रत्नत्रयधर्मनी आराधना
नहि करवाथी जीव दीर्घ संसारमां रखडयो. रत्नत्रयधर्मनी आराधना करनार जीव
आराधक छे, अने तेनी आराधनानुं फळ केवळज्ञान छे.