Atmadharma magazine - Ank 371
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं. ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 128
रत्नत्रय – उपासना
सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र...जैनधर्मना सर्वोत्तम त्रण रत्नो....
आत्मानो महा आनंद आपनारां त्रण रत्नो....एनो महिमा लोकोत्तर छे. आ रत्नत्रय
ए सर्वे मुमुक्षुओनो मनोरथ छे; ते रत्नत्रय लेवा माटे चक्रवर्तीओ छ खंडना
साम्राज्यने तथा १४ रत्नोने पण अत्यंत सहेलाईथी छोडी दे छे; ईन्द्रो पण एने माटे
तलसी रह्या छे. जीवने आ रत्नत्रयनी प्राप्ति ते जैनशासननो सार छे. ते ज जैनधर्म छे.
वाह, आवा सम्यक्रत्नत्रयना एकाद रत्ननी प्राप्तिथी पण जीवनो बेडो पार छे.
अहा, जे मूल्य वडे जीवने अनंतकाळनुं मोक्षसुख मळे ते रत्नत्रयनी शी वात!
समस्त जिनवाणीनो सार एक शब्दमां कहेवो होय तो ते छे– ‘रत्नत्रय’ तेना ज
विस्तारथी, अने तेनी ज प्राप्तिना उपायना वर्णनथी जिनागम भर्या छे. आ रत्नत्रय
एटले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ए त्रणेय राग वगरनां छे;
सिद्धांतसूत्रोमां तो तेमने ‘ज्ञाननुं परिणमन’ कहीने राग वगरनां बताव्यां ज छे, ने
रत्नत्रय–पूजनना पुस्तकमां पण पहेली ज लीटीमां तेमने त्रणेयने राग वगरनां
बतावीने पछी ज तेना पूजननी शरूआत करी छे :–
‘सरघो जानो पालो भाई, तीनोमें कर राग जुदाई।’
‘सरधो जानो भावा भाई, तीनोमें ही रागा नाई।’
(जुओ, पं. टेकचंदजीकृत रत्नत्रयविधान पूजा)
वाह, वीतराग रत्नत्रय! जीवनी शोभा माटे तमारा समान सुंदर आभूषण
बीजुं कोई नथी. आवा रत्नत्रय वडे आत्माने आभूषित करवा माटे समयसारमां
कुंदकुंदस्वामी कहे छे के हे भव्य! दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षपंथमां आत्माने जोड.
जिनभगवंतो दर्शन–ज्ञान–चारित्रने मोक्षमार्ग कहे छे. दर्शन–ज्ञान–चारित्र ज मोक्षमार्ग
छे, केमके तेओ आत्माश्रित होवाथी स्वद्रव्य छे. जे जीव पोताना चारित्रदर्शनज्ञानमां
स्थित छे ते स्वसमय छे–एम हे भव्य! तुं जाण...ने ए जाणीने तुं पण स्वसमय था. आ
जगतनी बधी दुर्लभ वस्तुओमां रत्नत्रय सौथी दुर्लभ छे. रत्नत्रयधर्मनी आराधना
नहि करवाथी जीव दीर्घ संसारमां रखडयो. रत्नत्रयधर्मनी आराधना करनार जीव
आराधक छे, अने तेनी आराधनानुं फळ केवळज्ञान छे.
प्रकाशक : (सौराष्ट्र) प्रत : ३६००
मुद्रक : मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय : सोनगढ (364250) : द्वि.–भाद्र (३७१)