जेवा धर्मात्मा आहार टाणे रस्ता पर जईने मुनिराजनी वाट जोता ऊभा रहेता ने
भावना भावता के कोई मुनि–धर्मात्मा पधारे तो तेमने भोजन करावीने पछी हुं जमुं.
–ने मुनि पधारे त्यां तो अत्यंत भक्तिथी हृदय ऊछळी जाय ने आहारदान करे.
प्रत्ये पण आदरभावथी दानादि करे छे. अहा, आवो सर्वोत्कृष्ट जैनधर्म! ने आवा
सर्वोत्कृष्ट देव–गुरु–शास्त्र, तेमना माटे हुं शुं करुं!–कई रीते तेमनो महिमा करुं! कई
रीते जगतमां तेमनो प्रभाव प्रसिद्ध करुं?–एम धर्मीने उत्साह होय छे. अंदर तो
सम्यक्त्वादि गुणवडे पोताना आत्माने विभूषित कर्यो छे; ने बहारमां पण विवेकपूर्वक
जिनपूजानो उत्सव, गुरुसेवा–मुनिभक्ति, दान, स्वाध्याय, शास्त्रप्रचार वगेरेथी जैन–
शासननी शोभा वधारे छे. मूळधर्म तो सम्यक्त्वादि शुद्धभाव छे, ने तेनी साथे श्रावकने
आवो व्यवहारधर्म होय छे. धर्मप्रवृत्तिमां पण त्रसहिंसा न थाय तेनो तेने विवेक होय
छे. अने दान देवामां पण पात्र–अपात्रनो विवेक होय छे. अन्य लौकिक कार्योमां लाखो–
वापरतांय लोभ करे,–तो एने दाननो के धर्मनो विवेक कहेवाय नहि. धर्मात्माने तो
चारेकोरनो विवेक होय छे. दान देवामां पण जैनमार्गनी ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रनी वृद्धि केम थाय,–तेम विचारे छे; धर्मात्माना सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी
विशेषताने ओळखीने ते गुणोनुं बहुमान करे छे.–आमां गुणनी ओळखाण ते मुख्य
छे. धर्मात्माना गुणने ओळख्या वगर पात्रदाननो खरो लाभ थाय नहि. मिथ्याद्रष्टिने
गुणनी खरी ओळखाण नथी एटले विवेक नथी, ते तो एकला रागने ओळखे छे ने
रागमां ज वर्ते छे; रागथी पार धर्मीना रत्नत्रयगुणोने ते ओळखतो नथी. एनी
ओळखाण करे तो तो भेदज्ञान थई जाय; भेदज्ञान वगर गुण–दोषनी साची ओळखाण
कर्या, तेनाथी भवभ्रमणनो अंत न आव्यो. एकवार पण जो रागथी पार
चैतन्यगुणोनी ओळखाण करे तो भवभ्रमणनो अंत आवी जाय.
रागथी जुदी छे. आ रीते सम्यग्दर्शन साथे श्रावकने वीतरागभावरूप क्रिया तेमज
दानादि शुभरागरूप क्रियाओ भूमिका प्रमाणे होय छे.