Atmadharma magazine - Ank 372
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : आसो : २५००
वगेरे सुपात्र जीवोने आदरथी आहारदान, शास्त्रदान वगेरे करे छे. भरत चक्रवर्ती
जेवा धर्मात्मा आहार टाणे रस्ता पर जईने मुनिराजनी वाट जोता ऊभा रहेता ने
भावना भावता के कोई मुनि–धर्मात्मा पधारे तो तेमने भोजन करावीने पछी हुं जमुं.
–ने मुनि पधारे त्यां तो अत्यंत भक्तिथी हृदय ऊछळी जाय ने आहारदान करे.
–आवो भाव धर्मीने होय छे. मुनिनो सुयोग न मळे तो धर्मनी रुचिवाळा साधर्मीओ
प्रत्ये पण आदरभावथी दानादि करे छे. अहा, आवो सर्वोत्कृष्ट जैनधर्म! ने आवा
सर्वोत्कृष्ट देव–गुरु–शास्त्र, तेमना माटे हुं शुं करुं!–कई रीते तेमनो महिमा करुं! कई
रीते जगतमां तेमनो प्रभाव प्रसिद्ध करुं?–एम धर्मीने उत्साह होय छे. अंदर तो
सम्यक्त्वादि गुणवडे पोताना आत्माने विभूषित कर्यो छे; ने बहारमां पण विवेकपूर्वक
जिनपूजानो उत्सव, गुरुसेवा–मुनिभक्ति, दान, स्वाध्याय, शास्त्रप्रचार वगेरेथी जैन–
शासननी शोभा वधारे छे. मूळधर्म तो सम्यक्त्वादि शुद्धभाव छे, ने तेनी साथे श्रावकने
आवो व्यवहारधर्म होय छे. धर्मप्रवृत्तिमां पण त्रसहिंसा न थाय तेनो तेने विवेक होय
छे. अने दान देवामां पण पात्र–अपात्रनो विवेक होय छे. अन्य लौकिक कार्योमां लाखो–
करोडो रूपिया वापरी नांखे, ने जैनधर्मनुं जरूरी कार्य होय तेमां पांच–दश हजार
वापरतांय लोभ करे,–तो एने दाननो के धर्मनो विवेक कहेवाय नहि. धर्मात्माने तो
चारेकोरनो विवेक होय छे. दान देवामां पण जैनमार्गनी ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रनी वृद्धि केम थाय,–तेम विचारे छे; धर्मात्माना सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी
विशेषताने ओळखीने ते गुणोनुं बहुमान करे छे.–आमां गुणनी ओळखाण ते मुख्य
छे. धर्मात्माना गुणने ओळख्या वगर पात्रदाननो खरो लाभ थाय नहि. मिथ्याद्रष्टिने
गुणनी खरी ओळखाण नथी एटले विवेक नथी, ते तो एकला रागने ओळखे छे ने
रागमां ज वर्ते छे; रागथी पार धर्मीना रत्नत्रयगुणोने ते ओळखतो नथी. एनी
ओळखाण करे तो तो भेदज्ञान थई जाय; भेदज्ञान वगर गुण–दोषनी साची ओळखाण
थाय नहि. जीवे शुद्धात्मानी ओळखाण वगर एकला शुभरागथी दान–पूजा अनंतवार
कर्या, तेनाथी भवभ्रमणनो अंत न आव्यो. एकवार पण जो रागथी पार
चैतन्यगुणोनी ओळखाण करे तो भवभ्रमणनो अंत आवी जाय.
जेणे ज्ञान अने कषायने अत्यंत जुदा अनुभव्या छे एवा धर्मीना अंतरमां
घणो समताभाव होय छे; वीतरागी समताभाव ते पण धर्मीनी एक क्रिया छे; ते क्रिया
रागथी जुदी छे. आ रीते सम्यग्दर्शन साथे श्रावकने वीतरागभावरूप क्रिया तेमज
दानादि शुभरागरूप क्रियाओ भूमिका प्रमाणे होय छे.