Atmadharma magazine - Ank 372
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 32 of 53

background image
: आसो : २५०० आत्मधर्म : २९ :
जैन – श्रावकनो धर्म
जैन–श्रावकने आत्मानुं सम्यग्दर्शन ते तो मूळभूत धर्म छे; ते
उपरांत देवपूजा–स्वाध्याय–मुनिसेवा–दान वगेरे व्यवहारआचार
पण सुयोग्य होय छे–तेनुं सुंदर वर्णन.
शुद्धधर्म कहो के मोक्षनो मार्ग कहो, तेनुं मूळ सम्यक्त्व छे. सम्यग्द्रष्टिजीवने
आहारदानादि चार प्रकारनुं पात्रदान, रत्नत्रयवंत गुणीजनोनी पूजा, रात्रिभोजननो
त्याग वगेरे उत्तम आचरण होय छे.
दानादिना एकला व्यवहार–आचार तो अज्ञानी पण करे छे; अहीं तो
सम्यक्त्वसहितना व्यवहार–आचारनी वात छे. जेने आत्माना शुद्ध–धर्मनी श्रद्धा छे–
एवा धर्मी श्रावकने आठ मूळगुणो होय छे. जेमां मध–मांस–मदिरानो संबंध होय एवी
वस्तुनो, के एवी शंकावाळी दवानो पण नियमपूर्वक त्याग मूळगुणमां आवी जाय छे;
तथा जेमां त्रण जीवो होय एवा खोराकनो त्याग होय, शिकार जुगार वगेरे तीव्र
कषायवाळा व्यसन न होय, रात्रिभोजन पण न होय, ने पाणी पण विधिपूर्वक गाळेलुं
प्रासुक ज वापरे. व्यवहारधर्मनो बधो विवेक श्रावकने बराबर होय छे. अंदर एकदम
वीतरागी चैतन्यतत्त्व ज्यां वेदनमां आव्युं त्यां तीव्र हिंसा के तीव्र कषायवाळी प्रवृत्ति
रहे नहीं. मांसादि तीव्र अभक्षनो खोराक तो जैन नाम धरावे तेने पण होय नहि; अरे,
सामान्य सज्जन आर्यमाणसोने पण तेवो खोराक होय नहीं; तो पछी धर्मात्माने तो
तेनुं नाम पण केवुं? एवा जीवो साथे खान–पाननो संबंध पण धर्मीने न होय. तथा
ज्यां एवा अभक्षनुं भक्षण थतुं होय एवा स्थानोमां (होटल वगेरेमां) पण मुमुक्षु–
सज्जन खान–पान करे नहीं. अत्यारना सिनेमा वगेरे विषय–कषायपोषक कार्यो पण
मुमुक्षुजीवने शोभे नहीं; एटले धर्मात्मा तो एवी नीरर्थक प्रवृत्तिने छोडे छे.
वळी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रधारक धर्मी जीवोना गुणप्रत्ये श्रावकने बहुमान
अने पूज्यभाव आवे छे. पोताने रत्नत्रयधर्मनो प्रेम छे एटले बीजा जीवोमां पण
तेवा धर्मने देखीने प्रसन्नता तथा आदरभाव थाय छे; ते मुनि–श्रावक के साधर्मी