पण सुयोग्य होय छे–तेनुं सुंदर वर्णन.
त्याग वगेरे उत्तम आचरण होय छे.
एवा धर्मी श्रावकने आठ मूळगुणो होय छे. जेमां मध–मांस–मदिरानो संबंध होय एवी
वस्तुनो, के एवी शंकावाळी दवानो पण नियमपूर्वक त्याग मूळगुणमां आवी जाय छे;
तथा जेमां त्रण जीवो होय एवा खोराकनो त्याग होय, शिकार जुगार वगेरे तीव्र
कषायवाळा व्यसन न होय, रात्रिभोजन पण न होय, ने पाणी पण विधिपूर्वक गाळेलुं
प्रासुक ज वापरे. व्यवहारधर्मनो बधो विवेक श्रावकने बराबर होय छे. अंदर एकदम
वीतरागी चैतन्यतत्त्व ज्यां वेदनमां आव्युं त्यां तीव्र हिंसा के तीव्र कषायवाळी प्रवृत्ति
रहे नहीं. मांसादि तीव्र अभक्षनो खोराक तो जैन नाम धरावे तेने पण होय नहि; अरे,
सामान्य सज्जन आर्यमाणसोने पण तेवो खोराक होय नहीं; तो पछी धर्मात्माने तो
तेनुं नाम पण केवुं? एवा जीवो साथे खान–पाननो संबंध पण धर्मीने न होय. तथा
ज्यां एवा अभक्षनुं भक्षण थतुं होय एवा स्थानोमां (होटल वगेरेमां) पण मुमुक्षु–
सज्जन खान–पान करे नहीं. अत्यारना सिनेमा वगेरे विषय–कषायपोषक कार्यो पण
मुमुक्षुजीवने शोभे नहीं; एटले धर्मात्मा तो एवी नीरर्थक प्रवृत्तिने छोडे छे.
तेवा धर्मने देखीने प्रसन्नता तथा आदरभाव थाय छे; ते मुनि–श्रावक के साधर्मी