Atmadharma magazine - Ank 372
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : आसो : २५००
महा कष्टे असंख्यात वर्षनी ए घोर नरकयातनानो भोगवटो पूर्ण करीने ते
जीव गंगाकिनारे सिंहगिरि पर सिंह थयो....पाछो धगधगता अग्नि जेवी पहेली नरके
गयो...ने त्यांथी नीकळी जंबुद्वीपना हिमवन् पर्वत उपर देदीप्यमान सिंह थयो.
महावीरनो जीव आ सिंहपर्यायमां आत्मलाभ पाम्यो. कई रीते पाम्यो? ते
प्रसंग जोईए:
* सिंहपर्यायमां सम्यग्दर्शन *
एकवार ते सिंह क्रूरपणे हरणने फाडी खाते हतो, त्यारे आकाशमार्गे जई रहेला
बे मुनिओए तेने देख्यो, ने ‘आ जीव भरतक्षेत्रमां अंतिम तीर्थंकर थवानो छे’ एवा
विदेहना तीर्थंकरना वचननुं स्मरण थयुं. तेथी दयावश आकाशमार्गेथी नीचे ऊतरीने
मुनिओए सिंहने धर्मनुं संबोधन कर्युं:
हे भव्य मृगराज! आ पहेलांं त्रिपृष्ठवासुदेवना भवमां तें घणा वांछित विषयो
भोगव्या ने नरकना अनेक प्रकारना घोर दुःखो पण अशरणपणे आक्रन्द करीकरीने ते
भोगव्या, त्यारे दशे दिशामां शरण माटे तें पोकार कर्यो, पण क््यांय तने शरण न मळ्‌युं.
अरे! हजी पण क्रुरतापूर्वक तुं पापनुं उपार्जन करी रह्यो छे? तारा घोर अज्ञानने लीधे
हजी सुधी तें तत्त्वने न जाण्युं. माटे शांत था...ने आ दुष्ट परिणाम छोड...
मुनिराजनां मधुर वचनो सांभळतां ज सिंहने पूर्वभवोनुं ज्ञान थयुं, आंखमांथी
आंसुनी धारा टपकवा लागी...परिणाम विशुद्ध थया...त्यारे मुनिराजे जोयुं के आ
सिंहना परिणाम शांत थया छे ने ते मारा तरफ आतुरताथी देखी रह्यो छे, तेथी
अत्यारे जरूर ते सम्यक्त्व ग्रहण करशे.
–एम विचारी मुनिराजे तेने शांतस्वरूपी चैतन्यनो अपार महिमा बताव्यो
अने पुरुरवा भीलथी मांडीने तेनां अनेक भवो बतावीने कह्युं के हे शार्दूल! हवेना
दशामा भवे तुं भरतक्षेत्रनो तीर्थंकर थशे–एम श्रीधरतीर्थंकरना श्रीमुखथी विदेहमां अमे
सांभळ्‌युं छे. माटे हे भव्य! तुं मिथ्यामार्गथी निवृत्त था ने आत्महितकारी एवा
सम्यक्मार्गमां प्रवृत्त था.
महावीरनो जीव (सिंह) ते मुनिराजना वचनथी तरत प्रतिबोध पाम्यो; तेणे
अत्यंत भक्तिथी वारंवार मुनिओने प्रदक्षिणा दीधी ने तेमना चरणोमां नम्रीभूत