Atmadharma magazine - Ank 373
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २५०१ आत्मधर्म : ५ :
ज्ञानी आनंदथी नचावे छे ज्ञाननी चेतनाने
ज्ञानचेतना आनंदमय छे...ते मोक्षनो मार्ग छे.
अज्ञानचेतना दुःखमय छे...ते संसारनो मार्ग छे.
हुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप जीव छुं, सर्व राग–द्वेष के हर्ष–खेद वगरनुं मारुं आनंदमय
स्वरूप मने स्वानुभवमां प्रत्यक्ष आस्वादवामां आवे छे;–ज्ञानीनी आवी अनुभूतिनुं
नाम ज्ञानचेतना छे. आचार्यदेव मंगल आशीषरूपे कहे छे के अहो ज्ञानीजनो! आवी
आनंदमय ज्ञानचेतनाने नचावता थका अत्यारथी मांडीने सदाकाळ प्रशमरसने पीओ.
ज्ञानीनी ते ज्ञानचेतना राग–द्वेषने करती नथी, ने हर्ष–शोक भोगवती नथी;
आथी ते ज्ञानचेतनामां परभावनुं प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान छे. आवी ज्ञानचेतनाने
आनंदरूप नचावता थका, एटले के पोते आनंदथी एवी ज्ञानचेतनारूपे परिणमता
थका, ज्ञानी मोक्षने साधे छे ने सदाकाळ चैतन्यना प्रशांत–प्रशमरसने पीए छे. अहा,
ए प्रशमरसना स्वादनी कल्पना रागमां के हर्षमां क््यांथी आवे?
हर्ष–खेद के राग–द्वेषना भावोमां ज्ञाननुं संचेतन नथी; ज्ञाननो स्वाद तेमनाथी
साव जुदी जातनो छे तेथी ते हर्ष–खेद के राग–द्वेषना अनुभवने अज्ञानचेतना कही छे,
ते अशुद्ध छे, तेमां दुःखनुं वेदन छे, ने ते संसारनुं कारण छे.
एककोर झेरनुं झाड...एककोर अमृतनुं झाड! भाई, झेरनां झाडनां कडवां फळ तो
तें अनादिथी चाख्या, ने तेथी तुं संसारमां दुःखी ज थयो. अरे, हवे एकवार तारी
चेतनाने ज्ञानरूप करीने अमृतना झाडनुं फळ तो चाखी जो! ते महान अतीन्द्रिय
आनंदरूप छे ने मोक्षनुं कारण छे. अरे, आवो उपदेश सांभळीने मुमुक्षु–शांतिनो
अभिलाषी जीव तो फडाक करतो रागथी छूटो पडीने अंदर चेतनामां ऊतरी जाय छे.
अरे शुभरागमांये जेने अशांति लागे ते मुमुक्षुजीव अशुभ रागनी भठ्ठीमां तो केम
जाशे? –ए तो शुभरागनी अशांतिथी पण छूटीने चैतन्यनी वीतरागीशांतिमां आवशे.
–अने आ रीते