Atmadharma magazine - Ank 373
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : कारतक : २५०१
* मारा ज्ञान–सुख माटे मारे ईंद्रियो वगेरे बीजानुं आलंबन लेवुं पडे तो ते
पराधीनता होवाथी मने प्रतिकूळ छे, ते ईष्ट नथी, पण अनिष्ट छे, दुःख छे.
अहो, वीरनाथ! वीतराग उपदेशवडे आवो सुंदर अमारो ईष्टस्वभाव दर्शावीने
आपे जे अचिंत्य उपकार कर्यो छे ते याद करतां पण अमारुं हृदय आपना प्रत्ये अर्पाई
जाय छे.
अहो, सर्वज्ञ अरिहंतोने प्रगटेलुं आत्मानुं रागवगरनुं स्वाधीन अतीन्द्रिय
महानसुख, ते कोने न गमे? आवुं सुख क््यो मुमुक्षु आनंदथी संमत न करे? सर्वज्ञनुं
आवुं ईंद्रियातीत सुख, ते आत्मानो स्वभाव ज छे–एम जाणतां मुमुक्षु भव्य आत्मा
प्रसन्नताथी तेनो स्वीकार करे छे, एटले ईंद्रियविषयोमांथी (–ने तेना कारणरूप पुण्य
तथा शुभ रागमांथी) तेने सुखबुद्धि छूटी जाय छे. –आवा सुखने श्रद्धामां लेतां
स्वभावना आनंदना वेदनसहित सम्यग्दर्शन थाय छे.
अहो, वीरनाथ परम सर्वज्ञदेव! आवा अतीन्द्रिय ज्ञान–सुखरूपे आप
परिणम्या छो, ने आपना आवा परम–ईष्ट आत्माने ओळखीने तेनो स्वीकार करतां,
अमारो पूर्ण ज्ञानानंदथी भरेलो आत्मस्वभाव अमने प्रतीतिमां आवी जाय छे,
मोक्षसुखनो नमुनो स्वादमां आवी जाय छे....ने ईष्टप्राप्तिना महा आनंदपूर्वक अमे
आपने नमस्कार करीने आपना मंगलमार्गमां आवीए छीए.

धीर, वीर, द्रढ ब्रह्मचारी श्री जंबुकुमार ज्यारे वैराग्यथी दीक्षा
लेवा तैयार थया छे अने तेनी माता शोकथी विलाप करे छे त्यारे
जंबुकुमार कहे छे के हे माता! तुं जलदी शोकने छोड....कायरताने छोड.
आ संसारनी बधी अवस्था क्षणभंगुर छे एम तुं चिंतन कर. हे माता!
आ संसारमां में ईन्द्रियसुखो घणीवार भोगव्या पण तेनाथी तृप्ति न
मळी; एवा अतृप्तिकारी विषयोथी हवे बस थाओ. हवे तो अमे
अविनाशी चैतन्यपदने ज साधशुं.