: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : ४९ :
* अहो, जिनेन्द्रदेवना कल्याणक प्रसंगे घणा जीवो धर्म पामे छे. *
* चैतन्यचक्रवर्ती: ८६ रत्नो पृ. ४ थी चालु *
२९. अहा, ज्यां छ कारकरूप स्वशक्तिनो निर्णय कर्यो त्यां निजकार्यने
माटे बहारना साधनोनी चिंता नथी रहेती, ए रीते निश्चिंत–
पुरुषो वडे आत्मा सधाय छे.
३०. पोतामां जेणे स्वभावनी पूर्णता न देखी ते जीव पोताना कार्यने
माटे बाह्य साधनना फांफां मारे छे ने पराश्रयथी दुःखी थाय छे.
३१. अहीं स्वभावनी पूर्णता अने छए कारकोनी स्वाधीनता बतावीने
आचार्यदेव स्वाश्रय तरफ लई जाय छे...के जे स्वाश्रयमां अनंत
गुणनी निर्मळ अनुभूतिनुं परम सुख वेदाय छे.
३२. ज्ञानस्वभावी आत्माने पोतानी अनंत शक्ति साथे एकत्व, ने
अनंत परपदार्थोथी विभक्तपणुं छे. स्वमां एकता करावीने परथी
विभक्तपणुं करावे ते ज खरी विभक्ति कहेवाय; तेमां कर्ता–कर्म–
करण वगेरे छए कारको समाई जाय छे.
३३. आत्मा पोताना कारकोने (–कर्ताने साधनने, वगेरेने) क््यांय
बहारथी नथी लावतो, अंतर्मुखपणे पोते ज पोताना
सम्यग्दर्शनादिना छए कारकोरूपे परिणमी जाय छे. आ रीते छए
कारकनी स्वतंत्र प्रभुताथी शोभतो ते चैतन्यचक्रवर्ती छे.
३४. जैन चक्रवर्तीने पराधीनता होय नहि तेम छए कारको जेने स्वतंत्र
–स्वाधीन छे एवा चैतन्यचक्रवर्तीने पोताना कार्यनी सिद्धि माटे
कोई अन्य कारकोनी पराधीनता नथी; स्वाधीनपणे स्वाश्रयवडे ते
पोताना कार्यने साधे छे.
३५. अहो! मारा स्वभावनुं कार्य करवानी ताकात मारामां ज पडी छे...
एम एक वार द्रढपणे नक्की तो करो.. –ए नक्की करतां ज
पराश्रयबुद्धि छूटी जशे, ने स्वाश्रये निर्मळकार्य थशे.
३६. जे निर्मळकार्य–सम्यग्दर्शनादि–थयुं तेनो कर्ता पण आत्मा स्वयमेव
छे. कोई बीजो तो कर्ता नहि. निमित्त तो कर्ता नहि, राग तो कर्ता
नहि, ने पूर्वनी