Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं. : ३४ “ आत्मधर्म ” Regd. No. G. B. V. 10
माता–पुत्रनी मधुरी वातचीत
* हे जिनवाणी माता! तुं प्रसन्न थईने मारा हृदयमां पधारी छो, तो तुं मने
शुं आपीश?
* बेटा तने आनंदमय चैतन्यतत्त्वनी अनुभूति आपीश; आत्मानी चेतना
आपीश, अने एवुं उत्तम तप आपीश के तारी चेतना चैतन्यतेजथी शोभी
ऊठशे. (अर्थात् आत्मअनुभूति ते जिनवाणीनुं तात्पर्य छे.)
* वाह माता! तमे अजोड दाता छो. मने हवे आ भवदुःखथी ने अज्ञानथी
क्यारे छोडावशो!
* बेटा, अत्यारे ज दुःखथी छूटीने आनंदमां आवी जा! आ रह्युं–तारुं
चैतन्यतत्त्व! तेनो स्वीकार करतां ज तारुं अज्ञान छूटी जशे.
* मा! मन आ संसारनो बहु भय लागे छे!
* बेटा, मारा शरणे हवे तने भय कोनो? जगतमां कोनी ताकात छे के मारी
गोदमां आवेला पुत्रने दुःखी करी शके? हुं कोण छुं? तीर्थंकर मारा पिता, ने
वीतरागी रत्नत्रयवंत मुनिवरो मारा भाई,–तेमणे मने ऊछेरी, अने हे
पुत्र! तने गोदमां लईने में चैतन्यरस पीवडाव्यो,–हवे तुं निर्भय थईने महा
आनंदमां आवी जा. मारुं शरण लेनारने भवदुःख होई शके नहि.
* वाह माता! तमे तो आनंदना ज दाता! तमे मने आनंदनी अनुभूति आपी.
हे माता! मने आनंद आप्यो तेम मारा साधर्मीओने पण आनंद आपजो.
हे जिनवाणी भारती! तोही जपुं दिन–रैन;
जो तेरा शरणा ग्रहे सो पावे सुखचैन.
माता! अनुभूति चेतननी अतिशय मुजने वहाली...
अनुभूतिमां आनंद उल्लसे, एनी जात ज न्यारी...
माता! दरशन तारा रे जगतने आनंद देनारा.
प्रकाशक : श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट सोनगढ (सौराष्ट्र) वैशाख
मुद्रक : मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय, सोनगढ (सौराष्ट्र) प्रत ३६००