Atmadharma magazine - Ank 380
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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आत्मा स्वयं छे ज्ञानरूप, रे! ज्ञान विण ते शुं करे?
परभावने आत्मा करे–ए मोह छे व्यवहारीनो.
आचार्यदेव कहे छे के आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, पोते
ज्ञान ज छे, ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? अरे
प्राणीओ! तमारो ज्ञानस्वरूप आत्मा जडनी क्रियानो के
रागनो कर्ता नथी एम तमे समजो.
ज्ञानस्वरूप आत्माने भूलीने जे एम माने छे के
अमे देहनी क्रियाना कर्ता अने अमे रागना कर्ता; तेने
माटे आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! ‘आत्मा
परभावनो कर्ता छे’ –ए तो व्यवहारी जीवनो मोह छे!
आत्मा खरेखर परभावनो कर्ता तो छे नहीं; छतां परनो
कर्ता माने छे तेने अहीं समजावे छे के अरे जीव! तारो ए
मोह छोड! तारो आत्मा तो ज्ञानस्वरूप छे, एम तुं
समज! ज्ञान साथे तन्मय एवा वीतरागी शांति–श्रद्धा
वगेरे भावो तारुं स्वकार्य छे, के जे तारा आत्मस्वभावथी
अभिन्न छे.
तंत्री: पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार * संपादक : ब्र. हरिलाल जैन