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[संपादकीय]
दुनियामां माता–पुत्र, अथवा भाई–बेननो संबंध निर्दोष ने उत्तम
छे, पण साधर्मीनो संबंध तो एना करतांय घणुं ऊंचुं स्थान धरावे छे,
–एटले तो प्रसिद्ध छे के ‘साचुं सगपण साधर्मीतणुं. ’ एनी तुलनामां आवे
एवो कोई संबंध होय तो ते एक ज छे–गुरु अने शिष्यनो; –परंतु गुरु–
शिष्यनो आ संबंध पण अंते तो साधर्मीना सगपणमां ज समाय छे, केमके
एक ज धर्मने माननाराओमां जे मोटा ते गुरु, ने नानो ते शिष्य. एटले
‘साचुं सगपण साधर्मीतणुं’ –एनी सौथी उत्कृष्टता छे.
एक राष्ट्रमां रहेनारा विधर्मीओ पण राष्ट्रीयभावना वडे
एकबीजाने भाई–भाई समजवामां गौरव अनुभवे छे, तो एक
जिनशासननी छायामां रहेनारा, ने एक ज देव–गुरु–धर्मने
उपासनाराओमां धार्मिकभावना वडे परस्पर जे बंधुत्वनुं निर्दोष वात्सल्य
वर्ततुं होय छे, अने ‘आ मारो साधर्मी भाई के बहेन’ एवुं कहेतां एना
अंतरमां जे निर्दोष भावना अने धार्मिक गौरव वर्ते छे–तेनी तुलना
जगतनो एक्केय संबंध करी शके तेम नथी.
आपणो धर्म तो वीतरागधर्म! तेमां साधर्मी–साधर्मीना संबंधनी
उत्कृष्टतानुं बीजुं कारण ए छे के तेमां एकबीजाना संबंधथी मात्र
धार्मिकभावनानी पुष्टि सिवाय बीजी कोई आशा के अभिलाषा होती नथी.
मने जे धर्म वहालो लाग्यो ते ज धर्म मारा साधर्मी ने वहालो लाग्यो,
एटले तेणे मारी धर्मभावनाने पुष्ट करी...ने एनी धर्मभावनाने हुं पुष्ट
करुं. –आम अरसपरस धर्मपुष्टिनी निर्दोष भावना वडे शोभतुं धर्मवात्सल्य
जगतमां जयवंत हो.
आपणे सौ एक ज उत्तमपथना पथिक छीए; आ कडवा संसारमां
साधर्मीना संगनी मीठाश देखीने, ने आत्मिकचर्चाना बे शब्दो सांभळीने
मुमुक्षुने असार संसारनो थाक ऊतरी जाय छे, ने धार्मिकउत्साहमां अनेरुं
बळ मळे छे. बस, साधर्मीना स्नेह पासे बीजी लाख वातोने पण भूली
जाओ....साधर्मी प्रत्ये वात्सल्य ए मुमुक्षुनुं आभूषण छे.
वीरनाथप्रभुना अढीहजारवर्षीय निर्वाणमहोत्सवना आ वर्षमां
सर्वे साधर्मीजनो वात्सल्यना पवित्र झरणामां पावन थाओ.....ने
आत्महित वडे वीरशासनने शोभावो.....