संसारमां पुण्य–पापना खेल तो आवा ज होय; मारुं ज्ञान तो तेनाथी जुदुं ज छे.
संकल्प–विकल्पनी जाळ थाय तेने पण तोडीने स्वरूपनी शांतिमां विशेष एकाग्र केम
थवाय, तेनी ज धर्मीने भावना छे. पुण्य–पापना उदयथी संयोगमां अनुकूळताना
ढगला होय के प्रतिकूळतानो पार न होय, तेने कारणे पोताने जराय सुखी–दुःखी ते
मानता नथी. अमारुं सुख अमारा आत्मामां छे, ते पुण्य–पाप वगरनुं छे; ए सुखने
अमे अमारा सम्यग्ज्ञानवडे साधी ज रह्या छीए, तेथी पुण्य–पाप बंनेना संयोगप्रत्ये
समभाव छे. पुण्य हो के पाप, तेने ज्ञानथी जुदा ज जाण्या छे, एटले सम्यग्ज्ञान पोते
हर्ष–खेदमां जोडाई जतुं नथी. आ रीते ज्ञानने पुण्य–पापथी जुदुं जाणीने हे भव्य
जीवो! तमे निश्चयथी ज्ञानस्वरूप आत्माने ज अंतरमां निरंतर ध्यावो; ते ज लाखो
वातोनो सार छे. बधुं करीकरीने पण जो आत्माने न जाण्यो तो बधुं असार छे–नकामुं
छे. जेणे आत्मा जाण्यो तेणे सारभूत बधुं करी लीधुं.
होय त्यां बाह्यसंपदाना ढगला होय तोपण तेथी शुं? रत्नकरंड–श्रावकाचार मां पण ए
वात करी छे. (गाथा २७) जो मारे सम्यक्त्वादिवडे आस्रवनो निरोध छे तो तेना
फळमां केवळज्ञानादि अनंत चैतन्यसंपदा मने सहेजे मळशे, पछी बाह्य संपदानुं शुं काम
छे? अने बाह्यसंपदा खातर जो पापकर्मनो आस्रव थतो होय तो एवी बाह्यसंपदाने
मारे शुं करवी छे? हुं भगवान आत्मा पोते बेहद चैतन्यसंपदानो भंडार छुं–एम
आत्मानां सम्यक् श्रद्धाज्ञानादि कर्यां ते श्रावकनां रत्नो छे. आवा अचिंत्य रत्ननो
पटारो मारी पासे छे तोपछी मारे बहारनी जडलक्ष्मीनुं शुं काम छे? सम्यक्त्वादिना
प्रतापे मारा अंतरमां सुख–शांतिरूप समृद्धि वर्ते ज छे, पछी मारे बीजा कोईनुं शुं काम
छे? अने जेने अंतरमां शांति नथी, सम्यग्दर्शन–ज्ञानादि रत्नोनी संपदा जेना अंतरमां
नथी, तो बहारनी संपदाना ढगला तेने शुं करशे? साची संपदा तो ते छे के जेनाथी
आत्माने शांति मळे; एटले आत्माना सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–वीतरागता ते ज साची संपदा
छे. आवी संपदावाळा सुखीया धर्मात्मा बहारनी अनुकूळता–प्रतिकूळता बंनेने पोताथी
जुदी जाणे छे, एटले तेने तेमां हर्ष–शोक थतो नथी, ज्ञान जुदुं ने जुदुं रहे छे. आवुं
सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान अंतरमां प्रगट करवुं ते बधानो सार छे.