: जेठ : २५०१ आत्मधर्म : २९ :
मूढ लोको बाह्य लक्ष्मीने ज सर्वस्व माने छे, ते लक्ष्मी खातर अडधुं जीवन वेडफी दे
छे ने अनेकविध पाप बांधे छे, छतां तेमां सुख तो कदी मळतुं नथी. बापु! ज्ञानादि अनंत
चैतन्यरूप तारी साची लक्ष्मी तारा आत्मामां भरी ज छे; तेने देख! तारी चैतन्यसंपदामां
बहारनी अनुकूळता के प्रतिकूळता केवी? आवी चैतन्यसंपदाना भान वगर साची शांति के
श्रावकपणुं होय नहीं. सम्यग्द्रष्टिनी दशा पुण्य–पापथी जुदी होय छे. सम्यग्दर्शनना प्रतापे
त्रणलोकमां श्रेष्ठ संपदारूप सिद्धपद मळे छे, पछी बीजी कोई संपदानुं शुं प्रयोजन छे?
बाह्यसंपदा ए खरेखर संपदा ज नथी.
अरे जीव! पापना फळमां तुं दुःखी न था, हताश न थई जा. ते वखते प्रतिकूळ
संयोगथी ज्ञान जुदुं छे तेने ओळख पापनो उदय आवतां चारेकोरथी प्रतिकूळता आवी पडे,
स्त्री–पुत्र मरी जाय, भयंकर रोग–पीडा थाय, धन चाल्युं जाय, घर बळी जाय, नाग करडे,
महा अपजश–निंदा थाय, अरे! नरकनो संयोग आवी पडे (श्रेणीक वगेरे असंख्य
सम्यग्द्रष्टिजीवो नरकमां छे), –एम एक साथे हजारो प्रतिकूळता आवे तोपण सम्यग्द्रष्टि
पोताना ज्ञानस्वरूपनी श्रद्धाने छोडतो नथी. भाई, ए संयोगमां क््यां आत्मा छे? आत्मा
तो जुदो छे, ने आत्मानो आनंद आत्मामां छे, –पछी सामग्रीमां हर्ष–शोक शो? तारी
सहनशक्ति ओछी होय तोपण आवा श्रद्धा–ज्ञान तो जरूर राखजे; तेनाथी पण तने
चैतन्यनी अपूर्व शांतिनुं वेदन रहेशे.
वळी जेम प्रतिकूळताथी जुदापणुं कह्युं तेम पुण्यना फळमां चारेकोरनी अनुकूळता
होय–स्त्री–पुत्रादि सारां होय, चारेकोर यश गवाता होय, अरे! देवलोकमां उत्कृष्ट
सर्वार्थसिद्धिनी ऋद्धि होय, –तोपण तेथी शुं? ते संयोगमां क््यां आत्मा छे? आत्मा तो जुदो
छे; आत्मानो आनंद आत्मामां छे–एम धर्मी जाणे छे ने तेना ज्ञानमां तेनुं ज वेदन वर्ते छे.
पुण्यफळने कारणे ते पोताने सुखी मानता नथी. जेम कोई अरिहंतोने तीर्थंकर प्रकृतिना
उदयथी समवसरणादिनो अद्भुत संयोग होय छे, पण तेने कारणे कांई ते अरिहंत भगवान
सुखी नथी, तेमनुं सुख तो आत्माना केवळज्ञानादि परिणमनथी ज छे, एटले ते ‘स्वयंभू’
छे, तेमां कोई बीजानी अपेक्षा नथी; तेम नीचली दशामां पण सर्वत्र समजवुं. सम्यग्द्रष्टि
पोताना शुद्ध चैतन्यपरिणमनथी ज सुखी छे; पुण्यथी के बाह्य संयोगथी नहीं.
भाई, संसारमां पुण्य–पापनां फळ ए तो चलती–फिरती छाया जेवा छे. आज मोटो
झवेरी होय ने काले भिखारी थईने पैसा मांगतो होय; आजे भीखारी होय ने काले मोटो
राजा थई जाय, –ए क््यां ज्ञाननुं काम छे? ने एमां क््यां कांई नवुं छे? ए तो जड–
पुद्गलनी रमत छे. आत्मा तो ज्ञानस्वरूप छे, तेमां नथी तो पुण्य के नथी पाप; पुण्य–
पापना कारणरूप राग पण तेना ज्ञानस्वभावमां नथी. आवा पोताना स्वरूपने करोडो उपाये
पण ओळखवुं, अने जगतनी झंझट छोडीने अंतरमां ध्याववुं–ते ज लाखो वातोनो सार छे.