: ३० : आत्मधर्म : जेठ : २५०१
अहो, ज्ञाननो दिव्य महिमा!
आत्मा सर्वज्ञस्वभावी छे; ते सर्वज्ञरूपे परिणमीने ज्यारे पूरुं जाणे त्यारे ते
आत्माने पूर्ण कहीए छीए. अधूरुं जाणे ने पूरुं न जाणे तो ते जीव पोताना
ज्ञानस्वरूपे पूरो परिणम्यो नथी, क्षायिकज्ञान तेने थयुं नथी, एटले त्यां परिपूर्ण
अतीन्द्रियसुख पण नथी.
अहो, सर्वज्ञतारूपे परिणमतुं क्षायिकज्ञान तो परिपूर्ण अतीन्द्रियसुखथी भरेलुं
छे, तेना अगाध महिमानी शी वात? भले पर्याय छे, पण ते पूर्णस्वभावरूपे
परिणमेली छे. पर्याय छे–माटे तेनो महिमा न होय–एवुं कांई नथी. केवळज्ञानने माटे
कुंदकुंदस्वामी पोते कहे छे के ‘अहो हि णाणस्स माहप्पं’ अहो, जिनदेवना ज्ञाननो केवो
महिमा! अमृतचंद्रस्वामी पण कहे छे के ‘क्षायिकं ही ज्ञानम् अतिशयास्पदीभूत
परममाहात्म्यं’ खरेखर क्षायिकज्ञाननो अतिशय–आश्चर्यकारी सर्वोत्कृष्ट परम महिमा
छे. आवा ज्ञाननो जेने महिमा आवे तेने अन्य रागादि कोई पण भावनो महिमा
आवे नहि, ने ज्ञानने ज महिमावंत अनुभवतो थको ते आत्माना उपशमभावने प्राप्त
करे छे. –भले क्षयोपशमज्ञान होवा छतां ते ज्ञान आत्माना स्वभावने अवलंबीने
अतीन्द्रियपणे परिणमे छे, तेनी साथे अतीन्द्रिय आनंद पण होय छे. –आवी
सम्यग्द्रष्टि साधकनी दशा छे.
अहा, मारो चेतनस्वभाव जगतथी न्यारो केवो अद्भुत ने केवो वीतराग छे!
–ते परमात्माने के परमाणुने राग–द्वेष वगर जाणी ल्ये छे; परमात्माने जाणतां ज्ञान
तेना उपर राग करतुं नथी, के परमाणुने जाणतां ज्ञान तेना उपर द्वेष करतुं नथी;
परमात्मा अने परमाणु बंनेने पोताना अतीन्द्रिय सामर्थ्यवडे जाणवा छतां ज्ञान ते
बंनेथी जुदुं पोताना शांत स्वरूपमां ज रहे छे. –आवी अद्भुत ताकात ज्ञानमां छे.
ज्ञान तो राग–द्वेषथी जुदी जातनुं वीतरागस्वरूप ज छे.
अहा! ज्ञान कोने कहेवाय? ज्ञान तो मधुर चैतन्यस्वादवाळुं छे, अनंतागुणनो
रस तेमां भर्यो छे. आवा मीठा चैतन्यस्वादने अनुभवतो ज्ञानी, ते पोताना ज्ञानना
स्वादमां रागादि कडवाशने जरापण भेळवतो नथी.
आवुं अद्भुत ज्ञान ते जगनुं शिरताज छे.
वीरनिर्वाणना आ अढीहजारमा वर्षमां उत्तम ज्ञाननी आराधना करो.