चडावीने गंधोदक लीधुं हतुं त्यारबाद स्वाध्याय मंदिरमां पधार्या हता, त्यां गुरुदेवे
मांगळिकरूपे समन्तभद्रस्वामीना स्वयंभूस्तोत्रमांथी छेल्ली कडी पं. श्री हिंमतभाई
पासे वंचावीने घणामहिमा पूर्वक तेना अर्थ कर्या हता; स्तुतिकार–आचार्य, महावीर–
प्रभुनी स्तुति करतां कहे छे के–
तव मत नयभंग विभूषित है, सुसमन्तभद्र निर्दुषित है.” १४३.
परमत छे ते कानोने प्रिय लागे एवी मधुर रचनावाळा होवा छतां, आत्महितकारी
एवा बहुगुणोनी संपत्तिथी रहित छे, सर्वथा अनेकान्तवादनो आश्रय लेवाने कारणे
तेना सेवनथी निजगुणोनी प्राप्ति थती नथी; तेम ज ते यथार्थ वस्तुस्वरूपना
निरुपणमां असमर्थ होवाथी अपूर्ण छे, बाधा सहित छे अने जगतने माटे
अकल्याणकारी छे. परंतु हे नाथ! अनेक नयभंगोथी विभूषित आपनो अनेकान्तमत
यथार्थ वस्तुस्थितिना निरुपणमां समर्थ छे, बहु गुणोनी संपत्तिथी युक्त छे अर्थात्
तेना सेवन वडे बहु गुणोनी प्राप्ति थाय छे, अने ते सर्व प्रकारे भद्ररूप छे, निर्बाध छे,
विशिष्ट शोभा–संपन्न छे अने जगतने माटे कल्याणरूप छे.
प्राप्ति छे. वस्तुमां एक समयमां उत्पाद–व्यय–ध्रुवता, क्षणे क्षणे बदले छतां निज–