नहि. अन्यमतनी भाषा भले कोमळ होय पण अंदर मिथ्यात्वनुं झेर छे, तेमां जीवने
निजगुणोनी प्राप्ति थती नथी; ते एकान्तमतो मिथ्या छे. हे नाथ! तारुं अनेकान्तशासन
ज ‘समन्तभद्ररूप’ (सर्व प्रकारे कल्याणरूप) अने निर्दोष छे. हे नाथ! तारा आवा
निर्दोष अनेकान्तशासनने मुकीने बीजा एकान्तशासनने कोण सेवे? ते तो रागना पोषक
छे, अने एकेक आत्मामां अनंत गुणो छे–एवा गुणनी प्राप्ति ते एकांत मतोमां नथी. जो
अनंतगुण मानवा जाय तो अनेकान्त साबित थई जाय छे ने सर्वथा एकान्त (–अद्वैत
अथवा सर्वथा नित्य के सर्वथा अनित्य–ए बधा) मिथ्या ठरे छे. माटे हे नाथ! आपना
निर्दोष शासन सिवाय बीजा कोई मत जीवने कल्याणरूप नथी; ते परमत तो जीवोने
अनंत संसारमां रखडावनार छे, ने आपनुं शासन जीवोने तारनार छे.
स्तुतिमां घणा गंभीर भावो भर्या छे. तेमने माटे एवो उल्लेख छे के तेओ भविष्यमां
तीर्थंकर थशे. आवा समन्तभद्रस्वामी महावीतरागी संत, तेमनुं वचन अत्यंत
प्रमाणभूत छे, जेवुं भगवान कुंदकुंदाचार्यनुं वचन अने जेवुं अमृतचंद्राचार्यनुं वचन
तेवुं ज समन्तभद्रस्वामीनुं वचन! तेओ स्पष्ट कहे छे के एक अर्हंतदेवनुं अनेकान्तमय
जिनशासन ज सर्वे जीवोने भद्ररूप छे; एना सिवाय बीजा बधाय एकान्तमतो दुषित
छे, मिथ्या छे, ने जीवोनुं अहित करनार छे. आवुं कल्याणकारी जिनशासन भद्ररूप अने
मंगळरूप छे.
गाजी उठया हता.
जिनमार्गमां ज एकतान थईने आत्महितने साधो. आत्महितनो आ अमूल्य सोनेरी
अवसर छे.