: २२ : आत्मधर्म : अषाढ : २५०१
(र–३) हे भव्य जीवो! १–अधु्रव, २–अशरण, ३–संसार, ४–एकत्व, ५–अन्यत्व, ६–
अशुचित्व, ७–आस्रव, ८–संवर, ९–निर्जरा, १०–लोक, ११–दुर्लभ, १२–धर्म,
एम बार प्रकारनी अनुप्रेक्षा श्री जिनदेवे कही छे; तेने जाणीने मन–वचन–
कायानी शुद्धिपूर्वक, (हवे कहेशे ते प्रमाणे) निरंतर भावो.
[बार भावनानो टूंको अर्थ: १–अधु्रव तो अनित्यने कहे छे; २–जेमां शरण नथी
ते अशरण छे; ३–भ्रमण ते संसार छे; ४–ज्यां बीजुं नथी ते एकत्व छे; ५–सर्वथी
जुदापणुं ते अन्यत्व छे; ६–मलिनता ते अशुचित्व छे; ७–जे कर्मनुं आववुं ते आस्रव
छे; ८–कर्मनुं आगमन अटकी जवुं ते संवर छे; ९–कर्मनुं झरी जवुं ते निर्जरा छे; १०–
जेमां छ द्रव्य देखाय ते लोक छे; ११–जे अति कठिनताथी पामीए ते दुर्लभ छे; अने
१२–संसारमांथी जे उद्धार करे ते वस्तुस्वरूपादिक धर्म छे. आवी बार अनुप्रेक्षाओनुं
वर्णन हवे अनुक्रमे करे छे; वैराग्यपूर्वक तेनुं चिंतन भव्यजीवोने आनंद उपजावे छे.
माटे तेनुं स्वरूप जाणीने निरंतर ते भावो.)
[१] अधु्रव अनुप्रेक्षा
[आमां १९ गाथाओ (४ थी २२) द्वारा भव–तन–भोग ईत्यादि समस्त
संयोगोनुं क्षणभंगुरपणुं बतावीने तेमां राग–द्वेष छोडवानुं समजाव्युं छे.]
(४) जे कांई उत्पन्न थयुं छे तेनो नियमथी नाश थाय छे. परिणामस्वरूपे कंई पण
शाश्वत नथी.
(प) हे भव्य! आ जन्म छे ते तो मरणसहित छे, यौवन छे ते वृद्धावस्थासहित छे,
अने लक्ष्मी पण विनाशसहित छे.–आ रीते बधी वस्तुने तुं क्षणभंगुर जाण.
(६) जेम नवीन मेघनां वादळां उदय पामीने तुरत ज वीखाई जाय छे, ते ज प्रमाणे
आ संसारविषे परिवार, बंधुवर्ग, पुत्र, स्त्री, भला मित्रो, शरीरनी सुंदरता,
गृह अने गोधन ईत्यादि समस्त वस्तुओ अस्थिर छे. (ए सर्वे वस्तुओने
अस्थिर जाणीने तेना संयोग–वियोगमां हर्ष–विषाद करवो नहि.)
(७) आ जगतमां ईन्द्रियविषयो छे ते ईन्द्रधनुष तथा वीजळीना झबकारा समान
चंचळ छे,–पहेलांं देखाईने पछी तरत विलय पामी जाय छे; तेमज भला सेवको,
बंधुवर्ग, उत्तम घोडा हाथी तथा रथ वगेरे पण एवा ज छे; बधी वस्तुओ ए
ज प्रमाणे क्षणिक छे, जोतजोतामां नाश पामी जाय छे.
(८) जेम मार्गमां पथिकजनोनो संयोग क्षणमात्र छे तेम आ संसारमां बंधुजनोनो