Atmadharma magazine - Ank 381
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : अषाढ : २५०१
(र०) ए प्रमाणे लक्ष्मीनुं अधु्रवपणुं जाणीने जे पुरुष, लोकमां धनरहित परंतु
धर्मसहित एवा लोकोने बदलानी आशा वगर निरपेक्षभावे दान करे छे तेनुं
जीवन सफळ छे.
(र१) धन यौवन तथा जीवनने पाणीना परपोटानी जेम क्षणभंगुर देखतो होवा
छतां, अत्यंत बळवान मोहना प्रभावने लीधे जीव तेने नित्य माने छे.
(रर) हे भव्य! समस्त विषयो क्षणभंगुर छे–एम सांभळीने, तुं महा मोहने छोडीने
तारा मनने विषयरहित कर, जेथी तुं उत्तम सुखने पामीश.
द्रव्यद्रष्टिमां वस्तु स्थिर, पर्जय अस्थिर जाण;
उपजत–विनशत देखीने, खेद–हर्ष नहि आण.
[पहेली अधु्रव–अनुप्रेक्षा समाप्त] (चालु)
लक्ष्मी–शरीर सुखदुःख अथवा शत्रु–मित्र जनो अरे!
जीवने नथी कंई धु्रव, धु्रव उपयोग–आत्मक जीव छे.
–श्री कुंदकुंदस्वामी
धर्म
स्वभावधर्मनी साधनामां सर्वे गुणो समाय छे.
धर्मप्राप्तिनो प्रमोद ए ज साचुं वात्सल्य.
धर्मनो उग्र उद्यम ए ज साचुं उद्योतन.
धर्मपरिणतिनो स्वसन्मुख वेग ए ज साचो संवेग.
धर्मनुं रागथी भिन्नपणुं ए ज साचो निर्वेग.
धर्मद्वारा आत्मगुणोनी रक्षा ए ज साची अनुकंपा.
धर्ममां आत्मानुं संवेदन एज परम आस्तिकता.
धर्मरूप निर्दोष परिणति ए ज परम निःशंकता.
धर्मद्वारा स्वतत्त्वमां प्रवेश–ए ज साची निर्भयता.
धर्मद्वारा आत्मगुणोनो विकास ए ज साची प्रभावना.
धर्मद्वारा स्वतत्त्वमां स्थिति ए ज स्थितिकरण.
धर्मरूप वीतराग परिणति ए ज उत्तम क्षमा.
हे जीव! आवा स्वधर्मने तुं उत्साहथी आराध.