: ४८ : आत्मधर्म : अषाढ : २५०१
जिनवाणीना
(संपादकीय)
आजेय भगवान महावीरनुं वीतरागी शासन धमधोकार चाली
रह्युं छे; पू. गुरुदेवना प्रतापे भारतमां ठेरठेर अध्यात्मतत्त्व समजवा माटे
हजारो जिज्ञासु जीवो जाग्या छे, ने वीरनाथनो वीतराग–संदेश सांभळवा
आतुर छे अनेक ठेकाणे जिज्ञासु विद्वानभाईओ वांचनकार तरीके जाय छे.
कोईपण ठेकाणे वीतरागी जिनवाणीनुं वांचन चालतुं होय त्यां
एक वात खूब महत्त्वनी छे के वांचनमां श्री देव–गुरु ने जिणवाणीनो महिमा
प्रसिद्ध थवो जोईए; देव–गुरु–शास्त्र माटे क््यांय, कोईपण अपेक्षाना बहाने
कटु शब्दो के तोछडाईभर्या शब्दोनो प्रयोग जरा पण करवो न जोईए;
उपदेश मधुर भाषामां होवो जोईए. केटलाक उपदेशको अत्यंत कडवा शब्दोथी
वात करता जणाया छे; एवा उपदेशने सत्य उपदेश कही शकाय नहि, केमके
उपदेश ‘मधुर’ होवो जोईए. सत्य पण जो कषायपूर्वक कहेवामां आवे तो
तेने शास्त्रो ‘असत्य’ नी कक्षामां ज मुके छे. तेथी जिनराजने नमस्कार
करवामां श्री कुंदकुंदस्वामी खास विशेषणथी कहे छे के–
शतईन्द्रवंदित त्रिजगहित ‘निर्मळ मधुर वदनारने,’
निःसीम गुण धरनारने, जितभव नमुं जिनराजने.
वीतराग उपदेश मधुर भाषामां, जाणे शांतरसनुं झरणुं वहेतुं होय
एवो होय छे. सामो जीव न समजे माटे कडकभाषा कहेवी जोईए,–एवी
दलील व्याजबी नथी; समयसारमां कहे छे के विरोध करनार प्रत्ये पण
मीठासथी ने समभावथी ज उपदेश आपवो ‘अमे स्पष्ट वक्ता छीए, अथवा
घणा द्रढ छीए, ने कडक शब्दप्रयोग वगर सामा जीवो समजता नथी’
–एवी दलीलथी पण कडकभाषामां उपदेश आपवानुं उचित नथी.
उपदेशमां प्रहारात्मक के खंडनात्मक रीत वापरवी न जोईए; कदाच
सिद्धांतना मतभेदो बाबत स्पष्टता करवी पडे तो ते पण अत्यंत मधुरताथी,
ने शांतिथी, कषायजन्य भाषा वगर वधु सारी रीते थई शके छे.
आत्मिकमहिमाने अनुलक्षीने ज शांतरसनी प्रधानताथी वांचन चालवुं
जोईए, तो ज स्व–परने हितनुं कारण थाय.