Atmadharma magazine - Ank 381
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २५०१ आत्मधर्म : ४९ :
अहा, संपूर्ण वीतरागतत्त्वनो उपदेश जे भाषामां अपातो होय ते
भाषा पण जाणे वीतरागरसथी नीतरती होय–एवी मधुर होय. शांतरसने
स्पर्शीने नीकळती वाणी पण शांत होय छे, एमां कषायना उद्रेक नथी होता.
जेम तीर्थंकरोनी वाणी परमशांतरसझरती होय छे, जेम वीतराग मुनिवरोनी
वाणी परम वीतरागरसझरती होय छे, तेम ते देव–गुरु अनुसार जे उपदेश
अपातो होय ते पण मधुरभाषामां अत्यंत शांतरसपूर्वक होवो जोईए.
साधर्मी–साधर्मीओमां ज्यां वांचन–विचार चालता होय त्यां,
वांचनकारे पोताने बीजा साधर्मीश्रोताओ करतां अधिक मानी लेवा न
जोईए. साधर्मीओने सौने सरखा समजीने वात्सल्यपूर्वक विचारोनी आप–
ले करवी जोईए. श्रोताओने पोताथी हिन मानीने तरछोडवा न जोईए.
जिज्ञासु श्रोता कंई कहेवा मांगता होय तो धैर्यथी सांभळवुं जोईए.
वक्ताए पोतानी भूमिकानी मर्यादानो ख्याल राखवो जोईए ने
जैनशासनने शोभे तेवा सदाचारथी शोभतुं तेनुं जीवन होवुं जोईए. कोई
त्यागीओ के विद्वानो उपर कटाक्ष के वाक्प्रहारो करवा न जोईए. कोईनी
लागणी न दुभाय तेम अत्यंत शांतभावथी मध्यस्थपणे सत्य वस्तुस्थिति
समजाववी जोईए.
गमे ते कारणे ने गमे तेटलो अंदरोअंदरनो मतभेद के मनभेद
होय तो, परम वात्सल्यधर्मना पवित्र जळमां ते धोई नाखवो जोईए, ने
चोख्खा मनथी सर्वे साधर्मी साथे हळीमळीने प्रेमव्यवहार करवो जोईए.
आ बधुं आपणे सौ अत्यंत स्पष्टपणे करीशुं त्यारे ज मुमुक्षुपणुं
शोभी ऊठशे, ने त्यारे ज वीतरागी–जिनवाणीना वांचनने माटे योग्य
वातावरण सर्जाशे, ने एवा प्रसन्न वात्सल्यभर्या वातावरणमां साची
मुमुक्षुताथी ज्यारे वांचन–विचार थशे त्यारे ज जिनवाणीमाताजी प्रसन्न
थईने सम्यक्त्वादि उत्तम फळ आपशे.
श्री जिनवाणीमाताजीनो विनय जाळववा ने तेमनी पासेथी उत्तम
फळ मेळववा परिणामनी खुब विशुद्धि–सरळता–मध्यस्थता ने शांति जरूरी
छे. आपणी माता कोण?–वीतरागी जिनवाणी! तेना पुत्रने शोभे एवुं
आपणुं जीवन होवुं जोईए.
–बस, आटली वात साधर्मीजनो प्रत्ये अंतरना साचा वात्सल्यथी लखी छे.
– जय महावीर.