Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
२०. आ ‘द्रव्य’ एवा लक्षणे नहि ग्रहण साचा जीवनुं,
‘पर्याय शुद्ध’ छे जीव पोते, –भेदहीन ते जाणजो.
(उपसंहार)
छे चेतना अद्भुत अहो, निजस्वरूपमां व्यापी रही,
ईन्द्रियोथी पार थई निज आत्मने देखी रही;
प्रभु कुंद कुंद–अमृत–स्वामी–चरणमां वंदी रही,
आनंद करती मस्त थई ते मोक्षने साधी रही.
[पू. बेनश्रीनी ६२ मी जन्मजयंती प्रसंगे प्रकाशित थतुं
आ ‘आत्मवस्तु–स्तव’ कुदरते ६२ पंक्तिमां रचायेलुं छे;
ते भव्यजीवोने आत्मवस्तुनी प्राप्तिनुं कारण हो.]
• •
हे मुमुक्षु, अंतरमां बहु मानपूर्वक तुं सदा सम्यक्त्वनी भावना करजे...
अवश्य तने तेनी प्राप्ति थशे. साधर्मीओना सम्यक्त्वनी वार्ता सांभळीने
पण प्रसन्न थाजे. सम्यक्त्वादि धर्मनी के देव–गुरु–शास्त्रनी हांसी के
अनादर कदी न करीश. हसतां–हसतां करेलो पण धर्मनो अनादर केवा
भयंकर पापफळने आपे छे! –तेनो विचार करजे. सीताजीए पूर्वभवमां
मात्सर्यवश एक निर्दोष मुनिराजनी हांसी करी तो तेमने आ भवमां
केवी परिस्थिति आवी पडी! सती अंजनाए पूर्वभवमां अज्ञानवश
जिनबिंबनो अनादर कर्यो तो तेने २२ वर्ष सुधी केवुं कष्ट सहन करवुं
पड्युं! माटे हे भव्य! तुं वीतरागी देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये, सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्ररूपधर्म प्रत्ये तथा धर्मात्मा–साधर्मीप्रत्ये आदरभाव
राखजे, कदी स्वप्नेय के मश्करीमां पण एमनो अनादर करीश मा! बीजा
साधारण पापो करतां देव–गुरु–धर्मना अनादरनुं पाप घणुं वधारे
भयंकर छे. माटे तेमने ओळखीने परमभक्तिथी तेमनी उपासना
करजे...तारुं कल्याण थशे.