: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : २७ :
७. उपयोग स्वाधीन आत्मनो स्वयमेव जाणे ज्ञेयने,
अवलंबतो नथी अन्यने तेथी ग्रहण नहि लिंगने.
८. उपयोग ते निजलिंग छे, पोते ज लिंगस्वरूप छे,
ते लावतो नथी बाह्यथी तेथी न लिंगनुं ग्रहण छे.
९. उपयोग लक्षण आत्मनुं, नहीं कोई तेने हरी शके,
अहार्य–ज्ञानी आतमा बस! ते ज सत्यस्वरूप छे.
१०. जेम सूर्यने नथी ग्रहण तेम न ग्रहण जाणो आत्मने,
उपयोगमां न मलिनता, शुद्धोपयोगी जीव छे.
११. जे लिंगरूप उपयोग छे ते कर्मने ग्रहतो नथी;
ए रीत कर्म–अबद्ध जीवने जाणजो आ सूत्रथी.
१२. रे! ईन्द्रियोथी विषयभोगो जीवने होतां नथी,
तेथी न भोक्ता भोगनो, –ए जाणजो निश्चय थकी.
१३. मन–ईंद्रिरूप को लिंगथी नहि जीवन छे आ जीवनुं,
तेथी न शुक्रार्वत ग्रहे–एवो अग्राही जीव छे.
१४. को शरीरना लिंगने अरे, आत्मा कदी ग्रहतो नथी,
लौकिक साधनरूप नहि एवो अतीन्द्रिय जीव छे.
१५. लिंगरूप को साधनोथी न लोकव्यापी जीव छे,
नथी सर्वव्यापी जीव, एवुं सत्य साबित थाय छे.
१६. नथी ग्रहण कोई वेदनुं–स्त्री–पुरुष आदि भावनुं
तेथी नथी को लिंग जेने, –अलिंग–ग्राही जीव छे.
१७. लिंग के’तां धर्मचिह्नो बाह्य जे साधुतणां,
नथी ग्रहण तेनुं जीवमां, ते चेतनाथी बाह्य छे.
१८. ‘आ गुण’ एवा बोधथी नथी ग्रहण थातुं जीवनुं;
गुणभेदथी लक्षित नथी, बस! शुद्धद्रव्य ज जीव छे.
१९. ‘पर्याय’ केरा बोधथी नथी ग्रहण थातुं जीवनुं,
पर्य–भेदथी लक्षित नथी, बस! शुद्धद्रव्य ज जीव छे.