: २६ : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
छे चेतनागुण गंध–रूप–रस–शब्द व्यक्ति न जीवने,
वळी लिंगग्रहण नथी अने संस्थान भाख्युं न तेहने.
नथी रूप कोई जीवमां तेथी न दीसे नेत्रथी,
वळी रस पण जीवने नहि तेथी न दीसे जीभथी.
जीव शब्दवंत नथी अरे, तेथी न दीसे कानथी,
नथी स्पर्श जीवमां कोई तेथी ग्राह्य छे ना हस्तथी.
वळी गंध जीवमां छे नहि तेथी न आवे नाकमां,
छे ईन्द्रियोथी पार ते आवे न ईन्द्रियज्ञानमां.
असंख्यप्रदेशी आत्म छे, संस्थान को निश्चित नहीं;
निजचेतनाथी शोभतो बस! ए ज लक्षण छे सही.
निजचेतनाने अन्य कोई साथ संबंध छे नहि,
बस, द्रव्य–गुण–पर्ययस्वरूपे शोभतो निजमां रही.
हवे वीस बोलो सांभळो! अलिंगग्रहण आत्मना,
ए जाणवानुं फळ थशे स्वानुभूति निजआत्ममां.
१. ज्ञायक आतमराम छे ते जाणतो नथी ईन्द्रिथी,
ए तो अतीन्द्रिय ज्ञानमय छे केम जाणे ईन्द्रिथी?
२. ईन्द्रियवश छे ज्ञान जे ते आत्मने कदी नव ग्रहे,
छे ईन्द्रियोथी पार जीव ते अक्ष–प्रत्यक्ष केम बने?
३. ईन्द्रियोना चिह्नथी अनुमान थाय न आत्मनुं;
अनुमान ईन्द्रियद्वारथी तो मात्र रूपी पदार्थनुं.
४. संवेद्यरूप निजआतमा, अनुमानथी ते पार छे;
कोई मात्र अनुमाने करी नहीं जीवने जाणी शके.
५. प्रत्यक्षग्राही आतमा परने भले ते जाणतो,
पण मात्र अनुमाने नहि, प्रत्यक्ष पूर्वक जाणतो.
६. प्रत्यक्षज्ञाता जीव छे, त्यां लिंगनुं शुं काम छे?
नथी लिंग द्वारा जाणतो, प्रत्यक्षज्ञायक जीव छे.