Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : २५ :
‘अलिंगग्रहण’ आत्मा ने जाण
देहादिक पुद्गलपिंडथी सर्वथा जुदुं, ने रागादि परभावोथी पण
पार, एवा परमार्थस्वरूप आत्मानुं असाधारण स्वलक्षण बतावीने,
प्रवचनसार गा. १७२ मां आचार्यभगवंतोए जे अद्भुत आत्मस्वरूप
प्रकाश्युं छे, तेना उपर गुरुदेवना स्वानुभूतिप्रधान प्रवचनो सांभळतां
जे उर्मि जागी ते आ ‘आत्मवस्तु–स्तवन’ मां काव्यरूपे व्यक्त करी छे.
(ब्र. ह. जैन)
(मंगल दोहा)
वंदूं श्री वीरनाथने साध्युं आत्मस्वरूप;
ईन्द्रियतीत अखंड ने अद्भुत आनंदरूप.
नमुं छुं जिनवचनने भाखे आत्मस्वरूप,
शुद्धउपयोग–प्रकाशथी जाण्युं आत्मस्वरूप.
परम रूप निज आत्मनुं देहादिकथी पार,
चेतनचिह्ने ग्राह्य जे पर लिंगोथी पार.
(राग: हरिगीत जेवो)
अद्भुत आत्मस्वरूपने प्रभु कुंदकुंद–प्रकाशता,
अमृतस्वामी हृदयखोली परम अमृत रेडता.
स्वानुभूतिमां आवतो ते आत्म आनंदमय अहो,
भवि जीव सूणतां सार तेनो शुद्ध समकितने लहो.