Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
देहादिथी पार पोतानी असाधारण चेतनाथी सम्पन्न,
प्रत्यक्षज्ञाता, अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूपी, जे एकला अनुमानथी अनुभवमां
न आवे तेवो, ईन्द्रिय–मनथी के लौकिक साधनोथी पार, द्रव्य–गुण–
पर्यायना भेदवडे पण जे अनुभवमां न आवे. पण चैतन्यनी अतीन्द्रिय
स्वानुभूतिमां जे पूरेपूरो समाय–एवा आत्मानुं अद्भुत वर्णन! –तेने
ईन्द्रियातीत स्वसंवेदन वडे तुं जाण!
प्रवचनसार गा. १७२ मां, शरीर कर्म वगेरे अन्य समस्त
द्रव्योथी भिन्न आत्मानुं परमार्थस्वरूप बतावनारुं असाधारण
चेतनालक्षण बताव्युं छे; अने ते चेतनालक्षणे लक्षित परमार्थरूप
आत्मतत्त्वनुं स्वरूप वीस अर्थोद्वारा घणुं स्पष्ट समजाव्युं छे. श्री
कुंदकुंदस्वामीना पांचे परमागमोमां आ गाथा छे, तेमज षट्खंडागमनी
धवला टीकामां पण छे, –ते उपरथी आ गाथानी विशेषतानो ख्याल
आवे छे; ने तेमां भरेला चैतन्यभावोनो ख्याल तो स्वसंवेदन वडे
धर्मीने ज आवे छे. –आवी गाथा उपरनां सुंदर अध्यात्मरसझरतां
प्रवचनोनुं दोहन आप अहीं वांचशो.
समयसारमां (गा. ५० थी ५५मां) २९ बोल द्वारा समस्त परभावोने तथा
भंगभेदने चैतन्यस्वरूप आत्मानी अनुभूतिथी भिन्न बताव्या. अनुभूति–पर्यायने तो
पोतामां अभेद करीने, आत्मा ते–रूपे परिणम्यो छे. तेम अहीं अलिंगग्रहणना अर्थमां
परमार्थस्वरूप आत्मा चैतन्यचिह्नथी ओळखाव्यो, –तेने हे भव्य! तुं जाण! तेने
‘जाणवामां’ अनंतगुणना निर्मळपरिणमननुं वेदन भेगुं छे. तेने जाणतां आत्मा पोते
सुखी थाय छे, आनंदनुं वेदन थाय छे, अतीन्द्रियभावोथी ते पर्याय कमळनी