एकलो व्यवहार जेम सत्य नथी होतो तेम प्रत्यक्ष वगरनुं एकलुं अनुमान ते पण सत्य
नथी होतुं. अहो, जैनशासननी अनेकान्तशैली अने निश्चय–व्यवहार कोई अलौकिक छे!
पर्यायना कोई भेद द्रष्टिमां रहेता नथी, परम आनंद सहित एकलुं चैतन्यतत्त्व
अखंडपणे प्रकाशे छे–वेदाय छे.
आचार्यदेवे अलौकिक रीते समजाव्युं छे. गुणना भेदवडे आत्मवस्तुनो अवबोध थतो
नथी, माटे गुणभेदरूप लिंगने आत्मा ग्रहतो नथी–स्पर्शतो नथी. ज्ञान–दर्शन–
चारित्ररूप गुणना भेदो ते आत्मा नथी–एम समयसारनी सातमी गाथामां कह्युं; तेथी
कांई एवो अर्थ नथी के आत्मामां ज्ञान–दर्शन–चारित्र वगेरे गुण–पर्यायो नथी.
गुणोथी अभेद आत्मा छे–तेमां भेद पाडवाथी आत्मा अनुभवमां आवतो नथी,
अनुभूतिमां भेद देखातो नथी, अभेदपणे ज परमार्थ आत्मा अनुभवाय छे. जेम आ
बोलमां गुणभेदनो निषेध कर्यो, ए ज रीते शुद्धपर्यायमां पण समजवुं. ‘आ शुद्धपर्याय
ने आ आत्मा’ एवो भेद धर्मीनी द्रष्टिमां नथी, तेथी कह्युं के शुद्धपर्यायथी तेनुं ग्रहण
थतुं नथी, पर्यायना भेदने ते स्पर्शतो नथी. पछी छेल्ला बोलमां, परमार्थरूप आत्मानी
अनुभूतिथी जे पर्याय थई ते शुद्धपर्याय आत्मा ज छे, –एम अभेदद्रष्टिथी आत्माने
शुद्धपर्याय कह्यो छे.
आत्मा अनुभवातो नथी–तेथी तेने द्रव्यथी पण अनालिढ एवो शुद्धपर्याय कह्यो. आम
छेल्ला त्रण बोल द्वारा गुण–पर्याय ने द्रव्यना बधा भेदोना विकल्पथी पार शुद्धआत्मा
बताव्यो.