Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : ३५ :
ते ज धर्मात्मानी द्रष्टिनो विषय छे, ने ते ज परमार्थरूप आत्मा छे. वीसे बोल द्वारा
तेनुं स्वरूप समजाव्युं छे.
द्रष्टिनो विषय अभेद छे–एटले द्रव्य–गुण–पर्यायना कोई भेदने ते स्वीकारती
नथी, निर्विकल्प आत्माने ते ग्रहण करे छे. गुरुदेव अत्यंत प्रमोदपूर्वक वारंवार
सम्यग्दर्शननी गंभीरता बतावीने कहे छे के अनुभवनी क्षणे द्रव्य–गुण–पर्यायना कोई
भेद उपर द्रष्टि रहेती नथी, भेद देखाता नथी; पण तेथी करीने आत्मामां तेनो अभाव
नथी; आत्मामां गुण–पर्याय तो छे, पण तेना भेदनुं लक्ष रहे त्यांसुधी निर्विकल्प अखंड
आत्मानी अनुभूति थती नथी. गुण छे पण तेनुं ग्रहण नथी एटले के गुणना भेद वडे
आखो आत्मा ग्रहवामां आवतो नथी–अनुभवमां आवतो नथी. भेदने अभेदमां
समावीने एक वस्तुने अभेद अनुभवे छे–ते धर्मीनी अनुभूति छे. ‘धर्मीनी
अनुभूतिना रहस्य ऊंडा छे. ’
अभेदवस्तु–सामान्यनी अपेक्षाए द्रव्य–गुण–पर्याय ए त्रणे तेना विशेषो छे–
भेदो छे. ते भेदो वडे अभेदरूप शुद्धआत्मानुं ग्रहण थतुं नथी–ए वात आ छेल्ला त्रण
बोलमां आचार्यदेवे समजावीने अनुभूतिना रहस्य स्पष्ट कर्या छे. –आ समजे तो
आत्माने सम्यग्दर्शन ने आत्मअनुभव थया वगर रहे ज नहि.
आवा अनुभव माटे घणी धीरज, घणी गंभीरता जोईए; ने एनुं फळ
पण एवुं अपूर्व महा आनंदरूप छे. विनयपूर्वक जेनुं स्वरूप सांभळतां पण
हर्षथी मुमुक्षुना रोमांच उल्लसित थई जाय, तेना वेदनमां असंख्य प्रदेशे
अतीन्द्रियआनंदनो जे रोमांच थाय–एनी तो शी वात! अंतरमां अनुभव
थई शके एवी आ चीज छे.
परमार्थरूप आत्मानुं स्वरूप, के जेने स्वज्ञेय बनावतां सम्यग्दर्शन थाय ने
प्रशमरस झरे–एनी आ वात छे. एवा आत्माने द्रष्टिमां लईने, स्वज्ञेय बनावीने
अनुभव करतां आनंदमय शुद्धपर्याय थई, –अभेदपणे ते आत्मा ज छे. ‘हुं द्रव्य, हुं
गुण’ –एवा भेद ते अनुभूतिमां नथी. शुद्धआत्मा ज पोते निरपेक्षपणे शुद्ध पर्यायरूप
अभेद परिणम्यो छे, तेथी आत्मा पोते शुद्धपर्याय छे. तेना वेदनमां द्रव्य–गुण अभेद
छे, पण आ द्रव्य–गुण–आ पर्याय एवा भेदनुं अवलंबन तेमां नथी. तेथी ‘शुद्धपर्याय’
ने देखतां अभेदपणे आत्मा ज देखाय छे. शुद्धपर्याय थई क््यांथी? शुं द्रव्य–गुणथी जुदी
छे? द्रव्य–गुणमां अभेद थईने ते शुद्धपर्याय परिणमी छे, तेथी अभेदपणे तेने ज
आत्मा कहीए छीए.