Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
‘आत्मा पर्यायछे? ’ –हा, आत्मा शुद्ध पर्याय छे, –जे आनंदनुं स्वसंवेदन थयुं ते हुं
ज छुं, –एम धर्मी जाणे छे–अनुभवे छे. ‘आनंदनी अनुभूति थई–एटलो ज हुं छुं’
अनुभूति करी त्यां द्रव्य–गुणनो स्वीकार तेमां आवी ज गयो, ज्ञायकस्वभाव पर्यायमां
आविर्भूत थयो, –ए ज भूतार्थनो आश्रय छे. –एने सत्यार्थ आत्मा कह्यो.
वाह, जुओ आ संतोनी अनुभूतिनां ऊंडा रहस्यो! स्वसन्मुख थईने
अतीन्द्रिय आनंदना वेदनरूप एवी शुद्धपर्यायरूप थयेल आत्मा जाणे छे के आ
शुद्धपर्याय हुं छुं. त्यां अभेदपणे द्रव्य–गुणनो स्वीकार तेमां आवी जाय छे, केमके तेमां
एकाग्र थईने पर्याय परिणमी छे. ‘आत्मा शुद्धपर्याय छे’ –एम कोण स्वीकारी शके?
जेने अंर्तद्रष्टि थई एवो धर्मी ज ते स्वीकारी शके छे; जेने शुद्धपर्याय नथी ते आ वात
यथार्थपणे स्वीकारी शकतो नथी. पर्याय कांई असत् नथी, ए पण सत्नो अंश छे.
‘आत्मा शुद्धपर्याय छे. ’ –हुं द्रव्य छुं, हुं सामान्य छुं–एवा विकल्प वडे तेनुं
ग्रहण थतुं नथी, माटे आत्मा अलिंगग्रहण छे. जेम पर्याय अने गुणना भेदना विकल्प
वडे आत्मा ग्रहातो (अनुभवातो) नथी, तेम ‘सामान्यमांथी विशेषपर्याय आवी, हुं
सामान्यद्रव्य छुं’ –एवा भेदरूप लिंग वडे पण आत्मा अनुभवातो (ग्रहातो) नथी.
अहो, चैतन्यतत्त्वनी अनुभूति द्रव्य–गुण–पर्यायना भेदथी पार छे, ‘प्रत्यक्षज्ञाता’
थईने आत्मा पोते पोताने स्वसंवेदनमां ल्ये छे, अतीन्द्रिय–प्रत्यक्ष ज्ञानथी तेनुं ग्रहण
थाय छे–एम कहीने आत्मानी अनुभूतिनो वैभव आचार्यदेवे खुल्लो कर्यो छे.
–स्वानुभवप्रत्यक्षथी भव्यजीवो ते प्रमाण करजो.
“वाह रे वाह! वीतरागी संतोए स्वानुभूतिनां रहस्यो बतावीने
महा उपकार कर्यो छे.”
• शुभरागमां पण दुःख कोने लागे? •
* जेणे राग वगरनी चैतन्यशांतिनुं वेदन कर्युं होय तेने रागमां दुःख लागे. राग
अने चैतन्यनी भिन्नताने जेणे जाणी होय तेने चैतन्यना शांतरसना
महानसुख पासे, बधा रागभावो अशांत अने दुःखरूप ज लागे छे. अशुभनी
जेम शुभराग पण जेने दुःखरूप नथी लागतो तेणे चैतन्यनी वीतरागीशांतिना
सुखने अनुभव्युं नथी. आ रीते राग ज्ञानीने ज खरेखर दुःखरूप लागे छे;
अज्ञानीनेय जोके रागनुं वेदन तो दुःखरूप ज छे पण भ्रमणाथी ते शुभरागमां
सुख माने छे, ने तेथी ज राग वगरनी शांतिने ते अनुभवी शकतो नथी.