: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : ३७ :
• •
धर्मात्माने दुःखवेदन होय?
धर्मात्माने सम्यक्त्वादिरूप जे ज्ञानचेतना छे तेमां तो चैतन्यनी
आ रीते साधकनी परिणतिमां सुख अने दुःख (ज्ञानचेतना अने कषाय) बंनेनुं
चोथागुणस्थाने ज्ञानीने त्रणकषाय विद्यमान छे, ने ज्ञानी ते कषायने दुःख जाणे
अहा, साधक जीवमां एकसाथे बे धारा–ज्ञानधारा ने कर्मधारा बंने वर्ते छे, छतां
सिद्धांतसूत्रोमां गुणस्थानअनुसार जोईए तो, सम्यग्दर्शन पछी पण चोथाथी
दशमा गुणस्थान सुधी जे–जे गुणस्थाने ज्ञानावरणादि छ कर्मोनुं, सात कर्मोनुं के आठ
कर्मोनुं जेटलुं जेटलुं बंधन छे तेटलो तेटलो कषायभाव जीवने विद्यमान छे, अने ते
भाव पोते दुःखरूप छे, तेनो स्वाद दुःखरूप छे, अने ते भावनुं परिणमन ते जीवमां ज
होवाथी जीव पोते तेनो कर्ता–भोक्ता छे. ते वखते तेना श्रद्धा–ज्ञानादि भावो जे शुद्ध
वर्ते छे ते भावमां रागादिनुं के दुःखनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी ए खरुं, ते सम्य–