: ३८ : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
कत्वादि साथेनुं अतीन्द्रियसुख पण तेने निरंतर वर्ते छे. –आ रीते धर्मीने अपूर्ण
दशामां शुद्धता तेमज अशुद्धता, सुख तेमज दुःख, मोक्षनुं साधकपणुं तेमज बाधकपणुं
एम बंने भावो वर्ते छे. –के जे अज्ञानीओने आश्चर्य उपजावे छे–केमके बंने धारानुं
भिन्नभिन्न स्वरूप तेओ समजी शकता नथी. परंतु निर्मळ द्रष्टिवाळा भेदज्ञानीओ तो
आचार्यदेव समयसार कळश २७३–२७४ मां कहे छे के: एक तरफथी जोतां
आत्मामां कषायोनो कलेश देखाय छे, अने एक तरफथी जोतां शांति देखाय छे; एक
तरफथी जोतां भवनी पीडा देखाय छे, ने एक तरफथी जोतां मुक्ति पण स्पर्शे छे.
–आम बंने धारा साधकने वर्तती होवा छतां, आत्मानो अद्भुतथी पण अद्भुत
स्वभाव–महिमा जयवंत वर्ते छे.
[गुरुदेवे हमणां प्रवचनमां आ विषय घणी स्पष्टताथी समजाव्यो हतो. अगाउ
पण आ संबंधी घणुं स्पष्टीकरण आत्मधर्ममां आवी गयुं छे.]
•
श्री कार्तिकेयस्वामी द्वादशअनुप्रेक्षानी लोकभावनामां लोकना सर्व
पदार्थोनुं वर्णन करीने तेना साररूपे गा. २०४ मां कहे छे के–
सर्वे द्रव्योमां जीव उत्तम द्रव्य छे, ते ज ज्ञान–सुख वगेरे उत्तम गुणोनुं
धाम छे, अने ते ज सर्वे तत्त्वोमां परम तत्त्व छे, –एम हे भव्यजीवो!
तमे निश्चयथी जाणो.
उत्तमगुणाणं धामं सव्वद्व्वाणं उत्तमं द्व्वं।
तच्चाणं परमं तच्वं जीवं जाणेहि णिच्छयदो।। २०४।।
अंतरतच्चं जीवो बाहिरतच्चं हवंति सेसाणि।
णाणविहीणं द्व्वं हियाहियं णेय जाणादि।। २०५।।
जीव अंतरतत्त्व छे अने बाकीनां बधां बहिरतत्त्वो छे, ज्ञानविहीन
एवां ते द्रव्यो हेय–अहेयने (अथवा हित–अहितने) जाणतां नथी;
ज्ञानसहित एवुं जीवद्रव्य ज हेय–अहेयने अथवा हित–अहितने जाणे
छे. माटे ते ज उत्तम अने सारभूत परमतत्त्व छे. –तेने ओळखो.
लोकना सारभूत सौथी सुंदर एवा जीवद्रव्यने जे जीव जाणे छे
ते जीव लोकनो शिखामणि थाय छे ने सिद्धपदमां शोभे छे.